किसे पुकारूँ, किससे कहूँ मन कि बात ?
सुनते नहीं,समझते भी नहीं वो,
मिलते भी नहीं मेरे उनके ख़यालात ।।
कोशिशों ने मुझसे कहा
हाथ जोड़कर कई बार
रहने दो, अब सम्भव नहीं, तुम्हारा उनका साथ ।।
मैंने कहा ! ये कह के तुम,
मत निकालो यूँ मेरी कमी
बार बार मत करो मुझ पे यूँ आघात ।।
वैसे ही टूटी हुई हूँ चूड़ियों की तरह
फिर भी पहनी है जोड़कर
भर कलाई रंग बिरंगे कंगनों के साथ
जोड़ती रही हूँ टूटी हुई
कड़ियां उन्हीं से जिन्होंने
पग पग पर तोड़े हैं मेरे जज़्बात।।
अकेली तुम्हारा ही तो
हाथ पकड़ती रही मै
आज तुम भी छुड़ा रही हो अपने हाथ ।।
सोचो तो मेरा क्या होगा ?
तुम बिन इस जहां में
सुनो तो सही मेरी इतनी सी बात
बस तुम बनी रहना
मेरी सखी यूँ ही
मैं सम्भाल लूँगी अपनी हर मुश्किलात ।।
**जिज्ञासा सिंह**
अपने यहां बुजुर्गों की स्थितियां निरंतर बिगड़ती जा रहे हैं ! "एजिज्म" की प्रवृत्ति एक समस्या का रूप लेती जा रही है !
जवाब देंहटाएंजी, बिल्कुल सच कहा आपने गगन जी ! ब्लॉग को समय देने के लिए आपका बहुत आभार..सादर नमन..
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-1-21) को "कैसे बचे यहाँ गौरय्या" (चर्चा अंक-3944) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
प्रिय कामिनी जी, नमस्कार ! मेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार..आपको हार्दिक शुभकामनाएँ..
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भावपूर्ण कविता।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार नीतीश जी..सादर नमन..
हटाएंमुझे समय के साथ समझौता में यही सही समझ में आया कि खुद के खोल में सिमट जाओ
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
आदरणीया दी, नमस्कार ! आपका आंकलन सत्य का परिचायक है..सादर आभार..
हटाएंप्रिय जिज्ञासा जी,
जवाब देंहटाएंबहुत महीन भाव गूँथे हैं आपने।
उम्र के इस पड़ाव पर जीवनसाथी का साथ और सहयोग
सबसे बेशकीमती होता है।
कोशिशों ने मुझसे कहा
हाथ जोड़कर कई बार
रहने दो, अब सम्भव नहीं, तुम्हारा उनका साथ ।।
कितनी गहरी पंक्तियाँ है..वाह।
आपकी रचना बेहद सराहनीय है।
सस्नेह।
प्रिय श्वेता जी, आपकी बेशक़ीमती प्रशंसा से अभिभूत हूँ..कृपया स्नेह बनाए रखें..सादर शुभकामना सहित जिज्ञासा सिंह..
हटाएंविरोधाभास ही तो जीवन को अर्थपूर्ण दृष्टि देता है । स्वयं का साक्षात्कार करने हेतु इन भावों को डूब कर जीना ही तो सुंदर कोशिश है ।
जवाब देंहटाएंसुंदर एवं अर्थपूर्ण टिप्पणी लेखन को नए नए आयाम देती है..ब्लॉग पर आपके स्नेह की अभिलाषा में..जिज्ञासा सिंह
हटाएंजोड़ती रही हूँ टूटी हुई
जवाब देंहटाएंकड़ियां उन्हीं से जिन्होंने
पग पग पर तोड़े हैं मेरे जज़्बात।।
बहुत ही गहन भावों से गुँथी हृदयस्पर्शी रचना...
वाह!!!!
आपकी आत्मीय प्रशंसा के लिए हृदय से आभारी हूँ..सादर सविनय जिज्ञासा सिंह..
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंप्रिय जिज्ञासा जी , आपकी रचनाओं में संवेदनाओं की गहराई मिलती है | मार्मिक रचना , जो मन को स्पर्श करती है |
जवाब देंहटाएंसुंदर स्नेहपूर्ण प्रतिक्रिया के लिए सादर धन्यवाद प्रिय रेणु जी..
हटाएंअत्यंत संवेदनशील एवं सराहनीय रचना के लिए शुभकामनाएँ जिज्ञासा जी। सादर ।
जवाब देंहटाएंप्रिय सधु जी, आपकी सराहनीय प्रशंसा के लिए सादर नमन..
जवाब देंहटाएंदिल छू! लेने वाली बात...! बहुत खूब...! अभी पढ़े और जाने
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