जुस्तजू में उनकी, हम आज फिर टूटे
लूट कर मुझको गए,बाद उसके रूठे
काश ग़ैरों की तरह मुझसे यूँ आके न मिलते
पास सब कुछ है, मगर लगता हैं गए लूटे
ये कायनात मुझे, सूनी नज़र आती है
ये बहारें औ बहारों के नज़ारे झूठे
अपनी लौ में बह रहा ग़मों का दरिया
बह गए अश्क, चश्म रह गए मेरे सूखे
दूर से मुझको बुलाती है वो खुशी रोकर
इस भरी दुनिया में हम रह गए जिसके भूखे
यूँ ही ढा ढा के सितम तोड़ दिया है मुझको
अब कहाँ जाएँ कोई रस्ता न मुझको सूझे
**जिज्ञासा सिंह**
बेहद हृदयस्पर्शी सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार अनुराधा जी, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को नमन करती हूं ।
हटाएंक्या टिप्पणी करूं जिज्ञासा जी? शायद जो दिल में उमड़ा, उसी को लफ़्ज़ों में ढाल दिया आपने।
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार जितेन्द्र जी, आपकी विशेष टिप्पणी को हार्दिक नमन ।
हटाएंदिल से निकलकर दिल को छूता बेहतरीन नज़्म!!!
जवाब देंहटाएंविश्वमोहन जी, आपका बहुत बहुत आभार व्यक्त करती हूं ।सादर नमन ।
हटाएंदिल को छूती सुंदर रचना, जिज्ञासा दी।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार ज्योति जी,आपको मेरा सादर नमन ।
हटाएंजुस्तजू में उनकी, हम आज फिर टूटे //
जवाब देंहटाएंलूट कर मुझको गए,बाद उसके रूठे////
बहुत खूब जिज्ञासा जी! एक टीस भरा सृजन, जो मन की अनकही वेदना की सार्थक अभिव्यक्ति 👌👌
आपके लेखन का ये रंग भी बढिया है! हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई🙏 🌹🌹❤❤
प्रिय रेणु जी,आपका बहुत बहुत आभार,सुंदर टिप्पणी के लिए आपको मेरा सादर नमन एवम वंदन ।
जवाब देंहटाएंलाजवाब पोस्ट।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार यशवंत जी,सादर शुभकामनाओं सहित आपको सादर नमन ।
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार अमृता जी, सादर शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह ।
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