हाथ पोटली थामे फिर आई वो
तंबाकू के सड़े दाँत दिखे, धीरे से जब मुस्कराई वो
गोदी से उतारकर लिटाया फर्श पर बेटा
कमर में साड़ी का बांधा फेंटा
शॉल को अपने इर्द गिर्द लपेटा
झाड़ू उठा जल्दी से,कूड़ा समेटा
गई बाहर कूड़े को फेंक पोंछा ले आई वो
हाथ पोटली थामे...
कई परिवारों का सामूहिक घर
डोलती वो इधर से उधर
निपटाती काम,पड़ा देखती जिधर
चाहे शाम हो या सहर
एक ही लय में दिखी,कभी न थकी नज़र आई वो
हाथ पोटली थामे...
तैयार किए छप्पन व्यंजन
दम आलू,कढ़ी, खीर,पनीर,भरवाँ करेला और बैगन
सजाया दस्तरख्वान,परोसा रोटी और मक्खन
बचा खुचा समेटा,खाली किए बर्तन
इसी बीच पोटली खोल, जाने क्या खा आई वो
हाथ पोटली थामे...
अरे ! जरा सुन महाराजिन
पिछले हफ्ते जब आईं थीं छोटी मालकिन
तूने काम किया था रात दिन
ले उसके पैसे और गिन
खनकते सिक्कों को बिना गिने पोटली में छुपा रख आई वो
हाथ पोटली थामे...
आज ब्याह है, महराजिन के घर में
और यहाँ सब लटका पड़ा है अधर में
डोल रहा है,खाना,कपड़ा,झाड़ू पोंछा सब भँवर में
कोई पीड़ा में कराह रहा,कोई ज्वर में
लग रहा देखकर, सबपे कहर ढा आई वो
हाथ पोटली थामे...
**जिज्ञासा सिंह**
चित्र साभार गूगल
बहुत बढ़िया👌
जवाब देंहटाएंबहुत आभार शिवम जी,आपकी प्रशंसा को नमन है ।
हटाएंहर मेहनतकश के घर की एक ही कहानी !
जवाब देंहटाएंसपने अधूरे ही रहे, मगर बीत गयी जवानी !
जी,सही कहा ये जो मैंने अपनी आंखों से देखा,वो यथार्थ है,आपको मेरा कोटि नमन ।
हटाएंघरेलू कामगार का अच्छा खाका खींचा है ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय दीदी, आपकी उत्साहित करती प्रशंसा को नमन है ।
हटाएंसजीव चित्र।
जवाब देंहटाएंविश्वमोहन की,आपका बहुत आभार ।
हटाएं*की/जी
हटाएंइसे चाहे कविता कहा जाए या रेखाचित्र, है बहुत ही अच्छा। अभिनंदन जिज्ञासा जी।
जवाब देंहटाएंजितेन्द्र जी आपका तहेदिल से शुक्रिया।
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (03-05 -2021 ) को भूल गये हैं हम उनको, जो जग से हैं जाने वाले (चर्चा अंक 4055) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
आदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी,नमस्कार !
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को चर्चा अंक में शामिल करने के लिए हार्दिक आभार व्यक्त करती हूं, सादर शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह ।
जवाब देंहटाएंउस तबके पर जिस पर कोई सोच तक नहीं रहा है, आपने उस पर लिखा और बहुत ही गहराई से भरे हुए शब्दों का प्रयोग भी किया है। बहुत खूब जिज्ञासा जी।
बहुत आभार संदीप जी, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन करती हूं ।
हटाएंबदलते परिवेश में ये आम बात है.. आपने शब्दो में ढालकर श्रमिकों की महत्ता को उजागर किया है..हर बड़ा घर इनके बिना कितना सिमट जाता है, बेबस हो जाता है..बेहतरीन लेखन ।
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार अर्पिता, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन करती हूं ।
हटाएंघरेलू कामगर महिलाओं के दर्द का जीवंत चित्रण जिज्ञासा जी । हृदयस्पर्शी भावाभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंमीना जी, मनोबल बढ़ाती आपकी प्रशंसा को हार्दिक नमन करती हूं ।
हटाएंश्रमिक दिवस पर एक सुंदर सजीव सृजन
जवाब देंहटाएंअनीता दीदी,आपका बहुत आभार व्यक्त करती हूं, सादर नमन ।
जवाब देंहटाएंआपने महराजिन के क्रियाकलापों का सुंदर शब्द - चित्र प्रस्तुत किया है। साधुवाद!--ब्रजेंद्रनाथ
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार आदरणीय, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन एवम ।
हटाएंजिज्ञासा दी, आज हम लोग कामवालियों पर कितना ज्यादा निर्भर हो गए है इसका बहुत ही सुंदर चित्रण किया है आपने।
जवाब देंहटाएंजी,ज्योति जी,ये सब कुछ खुद देखती हूं,उसी अनुभव को शब्दों में पिरोने का प्रयास है, आपकी प्रशंसा को नमन है ।
हटाएंजीता जागता चित्रण कर दिया एक कैनवस खींच दिया घरों में काम करने वाली मजदूरन का ... बहुत खूब ...
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर आपकी बहुमूल्य टिप्पणी का हार्दिक स्वागत है,आपको सादर नमन एवम वंदन ।
जवाब देंहटाएंएक श्रमजीवी नारी की समस्त व्यथा का जीवंत शब्दांकन् सिवाय जिज्ञासा जी के कोई नही कर सकता। सब के दुःख -सुख में काम आने वाली अपने घर की खुशियों के समय कैसे पस्त हो जाती है वह मर्मांतक और पीड़ादायक है। सस्नेह-
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