कुछ जागृत हो तो अच्छा हो


ये मूढ़मती मन सोच रहा, कुछ जागृत हो तो अच्छा हो
मैने तन मन धन का मान किया, मन सात्विक हो तो अच्छा हो

हर रोज राह में काँटों ने, चुन चुन के मेरे ही पाँव चुने
जख्मों के मरहम में कुसुमों का, अर्क मिले तो अच्छा हो 

अब दुःख और सुख मेरे जीवन में, पथ के दो किनारे जैसे हैं 
धीरज संयम को हृदय लगा, सहचर बन जाएँ तो अच्छा हो

एक दिन तो सभी को जाना है,फिर अपना पराया कौन यहाँ 
इस शून्य अधम सी काया का, मत मोह करो तो अच्छा हो

वो कहते हैं सब कुछ मेरा है,मैं करती हूँ न्योछावर उनको
क्या लेना मुझे क्या देना मुझे,सब तुम ही संभालो तो अच्छा हो

बस इतना रहे मेरे हाथों में,अर्पण तुमको कुछ कर पाऊँ 
वो धन हो या मन हो या जीवन हो,सर्वस्व समर्पण अच्छा हो

हे नाथ कृपानिधि तुम मेरी, छाया बनकर संग में रहना 
मैं बन के तुम्हारी अनुगामी, पथ पर चल पाऊँ तो अच्छा हो 

**जिज्ञासा सिंह**

32 टिप्‍पणियां:

  1. पूर्ण समर्पण की भावना , सुंदर अभिव्यक्ति
    बस ये समझ पाएँ की इस संसार में न कुछ मेरा है न तेरा तो अच्छा हो ।

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  2. आपकी त्वरित प्रतिक्रिया दिल की गहराइयों तक उतर गई,आपको मेरा सादर नमन आदरणीय दीदी🙏।

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  3. बहुत सुंदर। बाकी और क्या चाहिए जब सबकुछ अच्छा हो..🌼

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  4. बस इतना रहे मेरे हाथों में,अर्पण तुमको कुछ कर पाऊँ
    वो धन हो या मन हो या जीवन हो,सर्वस्व समर्पण अच्छा हो
    हे नाथ कृपानिधि तुम मेरी, छाया बनकर संग में रहना
    मैं बन के तुम्हारी अनुगामी, पथ पर चल पाऊँ तो अच्छा
    बहुत सुंदर प्रिय जिज्ञासा जी। जीवन के तामझाम के बाद आध्यात्मिकता बहुत सुकून देती है। बहुत अच्छा लगता है परम सत्ता से संवाद करना। हार्दिक शुभकामनाएं।

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    1. बहुत बहुत आभार प्रिय रेणु जी,आपकी सुंदर सार्थक प्रतिक्रिया कविता के सृजन को सार्थक कर गई,आपको मेरा सादर नमन।

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  5. सर्वस्व समर्पण सब तुझको अर्पण
    विनती इतनी तू बन जा दर्पण
    बहुत सुंदर रचना,अत्यंत भावपूर्ण चैतन्य मन की दार्शनिक अभिव्यक्ति।

    सस्नेह
    सादर।

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  6. दिल को छूती बहुत सुंदर रचना, जिज्ञासा दी।

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  7. ईश्वर करे आपकी सभी आशायें फलवती हैं।

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  8. हे नाथ कृपानिधि तुम मेरी, छाया बनकर संग में रहना
    मैं बन के तुम्हारी अनुगामी, पथ पर चल पाऊँ तो अच्छा हो
    ऐसी समर्पण हो जाए तो जीवन में कोई दुःख शेष ना रहे

    बेहद प्यारी रचना जिज्ञासा जी,सादर नमन आपको

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  9. अब दुःख और सुख मेरे जीवन में, पथ के दो किनारे जैसे हैं
    धीरज संयम को हृदय लगा, सहचर बन जाएँ तो अच्छा हो
    वाह!!!
    सर्वस्व समर्पण भाव !!!
    लाजवाब सृजन।

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    1. आपकी प्रशंसा कविता को परिपूर्ण कर गई।आपकी सार्थक प्रतिक्रिया को सादर नमन।

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  10. बहुत सुंदर आध्यात्मिक भावों से ओतप्रोत,जीवन का सही मूल्यांकन करती सुंदर रचना।
    बहुत सुंदर जिज्ञासा जी।

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    1. कुसुम जी, आपकी बहुमूल्य टिप्पणी को हार्दिक नमन एवम वंदन करती हूं।

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  11. आपका बहुत बहुत आभार सतीष जी,सादर नमन।

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  12. आध्यात्मिक भावों से सजी अत्यंत सुन्दर कृति जिज्ञासा जी!

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  13. बहुत बहुत आभार मीना जी,आपको मेरा सादर नमन।

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