आशा का मैं दीप जला, नदिया के तीरे
लौट पड़ी नौका में बैठी धीरे धीरे
सहसा मेरी नजर पड़ी ऐसी डोंगी पे
बैठे जिसमें भद्र लोग संग एक युवती के
युवती की थी उमर महज बस बीस बरस की
रत्नारे नैना, केशों की छवी घटा सी
दर्द भरी मुस्कान अधर पे घूम रही है
नौका की लहरों संग रह रह झूम रही है
मैंने देखा मांग भरी माथे बिंदिया है
सजी नवेली लगती जैसे दुलहनियाँ है
शनैः शनैः चली आ रही वो लहरों पर
उतर पड़े सब हाथ पकड़ सुरसरि के तट पर
कुछ लोगों का झुंड खड़ा अगवानी करता
युवती के परिवेश की हर निगरानी करता
इतने में सब बैठ गए ले कुश का आसन
मरियल सा एक पुरुष दिखा जैसे दुःशासन
हाथों में उस्तरा होंठ में खुशी छुपी है
उसके सम्मुख वो युवती ठिठकी बैठी है
कर्म किया आरंभ पुरुष ने ज्यों ही अपना
मुझको लगा देखती हूँ, मैं जैसे सपना
चीत्कार सा हुआ और युवती चिल्लाई
पकड़ा अपना शीश ज़ोर से वो घिघियाई
केशों पे चलती आरी, श्रृंगार धुला सब
पीड़ा घोर अपार,कहे किससे जाकर अब
केश उड़े आकाश घटाएँ घिर आई हैं
नैनों की वर्षा से गंगा उफनाई हैं
विधवा का संताप व्योम से भी ऊँचा है
क्रंदन और विलाप गगन तक जा पहुंचा है
हाय वीर की नारी,ये आघात मुझी से
कैसा ये प्रतिशोध,और प्रतिघात मुझी से
कैसी जग की रीत, रूढ़ियाँ घातक कितनी
मीन फंसी काँटे में, आज हूँ, बेबस इतनी
कोई हो जो मुझे बचाए इस बंधन से
मुक्ति दे दे आज मुझे ऐसे जीवन से
मेरा पुरुष गया और मैं क्यों जीवित हूँ,
मैं समाज के छल से सदियों से पीड़ित हूँ
कहीं नहीं कुछ बदला है,अब भी इस जग में
अगणित कंटक चुभते अब भी मेरे पग में
सब कहते हैं,स्त्री सबल हुई इस युग में
पर वो लहू नहीं बदला जो बहता रग में
वही रूढ़ियाँ,वही विषमता दिख जाती है
अपनों से बेबस स्त्री जब घिर जाती है
*जिज्ञासा सिंह**
चित्र गूगल से साभार
वेदना की ये विकल वेगवती धारा,
जवाब देंहटाएंहाय!
नारी ने ही अब तक सब कुछ हारा।
...समाज की रूढ़ियों पर प्रहार करती मर्म को छूने वाली रचना।
प्रतिक्रिया में आपकी सार्थक पंक्तियाँ ने कविता के सृजन को सार्थक कर दिया।आपका कोटि कोटि धन्यवाद,आपको मेरा सादर नमन।
हटाएंसमाज की रूढ़ियाँ जो कल थी वही आज भी ही किंचितमात्र भी परिवर्तन नही हुवा।ह्रदय को झकझोरती उत्कृष्ट रचना।
जवाब देंहटाएंआपने बिलकुल सच कहा अपने,आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय दीदी।
हटाएंकेश उड़े आकाश घटाएँ घिर आई हैं
जवाब देंहटाएंनैनों की वर्षा से गंगा उफनाई हैं
विधवा का संताप व्योम से भी ऊँचा है
क्रंदन और विलाप गगन तक जा पहुंचा है ।
ऐसी कुरीतियाँ नारी पर अत्याचार ही है । ऐसा क्यों होता आया है ,समझ से परे है । झकझोर देने वाली रचना ।
आदरणीय दीदी आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया मन को अभिभूत कर गई,आपको मेरा सादर नमन और अभिवादन।
हटाएंआपकी लिखी रचना गुरुवार 19 जुलाई 2021 को साझा की गई है ,
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
"पांच लिंकों का आनंद"पर मेरी रचना को शामिल करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार,सादर शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह ।
हटाएंसंताप का अंधकूप। संस्कृति मुक्तकर्ता हो न कि बन्धनकर्ता।
जवाब देंहटाएंजी,सही कहा आपने प्रवीण जी,आपको मेरा सादर नमन।
हटाएंसमाज की रूढ़िवादी सोच जब तक नहीं बदलेगी
जवाब देंहटाएंस्त्रियां ऐसे ही रोती रहेंगी
हम सब को अब नयी सोच की पहल करनी होगी
मन को नम करती भावपूर्ण रचना
आपकी सार्थक प्रतिक्रिया कविता को परिपूर्ण कर गई,आपको मेरा असंख्य आभार।
हटाएंओह अत्यंत मार्मिक रचना।
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार एवं सादर नमन।
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक !
जवाब देंहटाएंजिज्ञासा, विधवा के केश-मुंडन की प्रथा आज भी कहीं न कहीं प्रचलित है.
उन्नीसवीं शताब्दी में महाराष्ट्र में और बंगाल में तो इस प्रथा ने न जाने कितनी विधवाओं का जीवन रस-हीन कर दिया था.
पंडिता रमाबाई ने हिन्दू धर्म के ठेकेदारों से पूछा था -
'अगर अपने पति के मरने पर पत्नी केश-मुंडन कराती है तो अपनी पत्नी के मरने पर पति केश-मुंडन क्यों नहीं कराता?'
जी,सही कहा सर आपने,मैंने देखा तो नहीं,परंतु सुनकर ही आहत हो गई।आपका बहुत बहुत आभार।
हटाएंसब कहते हैं,स्त्री सबल हुई इस युग में
जवाब देंहटाएंपर वो लहू नहीं बदला जो बहता रग में
वही रूढ़ियाँ,वही विषमता दिख जाती है
अपनों से बेबस स्त्री जब घिर जाती है
विधवा के जीवन का सटीक विश्लेषण किया है आपने जिज्ञासा दी।
आपने रचना के मार्मिक पहलू को समझा,आपको मेरा विनम्र नमन।
हटाएंबहुत ही मार्मिक लेकिन कटु सत्य को उजागर करती रचना, हालांकि आधुनिक समाज में बहुत सारा बदलाव भी आया है, पुनर्विवाह की संभावनाएं भी बढ़ी हैं शिक्षा के साथ साथ, फिर भी कहीं न कहीं वैधव्य का पूर्वाग्रह समाज में अब तक मौजूद है, विशेषतः तथाकथित उच्च वर्ण उसे पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाया है।
जवाब देंहटाएंजी सही कहा आपने,आपकी टिप्पणी ने रचना को सार्थकता प्रदान की,आपका कोटि कोटि शुक्रिया।
हटाएंसमाज की रुढियों को उजागर करती करुण रचना
जवाब देंहटाएंआपकी प्रतिक्रिया का ब्लॉग पर हार्दिक स्वागत है,हृदयतल से आभार।
हटाएंमेरा पुरुष गया और मैं क्यों जीवित हूँ,
जवाब देंहटाएंमैं समाज के छल से सदियों से पीड़ित हूँ
नहीं लिख पा रही हूँ कुछ..
मैं आज तक किसी समाज में
सद्य विधवा का मुंडन नहीं सुना
सादर..
जी,दीदी मैंने भी समक्ष देखा नहीं,परंतु विमर्श में सुना और किसी भी समय में ऐसे संस्कारों का समर्थन आहत कर जाता है,आपको मेरा सादर नमन।
हटाएंअत्यंत मर्मस्पर्शी विषय पर प्रभावी चिंतन ।
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार अमृता जी।
हटाएंनिःशब्द करती सुन्दरतम मार्मिक रचना! हार्दिक बधाई जिज्ञासा जी!
जवाब देंहटाएंआपकी प्रतिक्रिया का ब्लॉग पर हार्दिक स्वागत है,स्नेह बनाए रखें।
हटाएंबहुत सुन्दर मार्मिक करुण रचना
जवाब देंहटाएंमनोज जी,आपका बहुत बहुत आभार।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंओह्ह....बेहद मार्मिक कथा काव्य।
जवाब देंहटाएंप्रिय जिज्ञासा जी,
आपके द्वारा खींचा गया शब्दचित्र आज फिर से प्रश्न कर रहा स्त्री के विधवा होने में उसका क्या दोष?
कबतक समाज दकियानूसी सोच के शाप को स्त्रियाँ झेलती रहेंगी?
मन को उद्वेलित करती बेहद प्रभावशाली रचना।
सस्नेह।
बिल्कुल सच कहा आपने प्रिय श्वेता जी,आपकी प्रतिक्रिया रचना को विस्तार दे गयी,बहुत बहुत आभार आपका।
हटाएंनि:शब्द हूँ…रुला दिया आपने…जैसे कोई चलचित्र चल रहा हो…बेहद मार्मिक…बेहद मार्मिक 😢
जवाब देंहटाएंये दृश्य ही ऐसे होते हैं,आपको मेरा सादर नमन।
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (20-7-21) को "प्राकृतिक सुषमा"(चर्चा अंक- 4131) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
--
कामिनी सिन्हा
कामिनी जी, नमस्कार !
हटाएंमेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए आपका कोटि कोटि आभार एवं अभिनंदन,सादर शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह...
सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार आदरणीय।
हटाएंओह!!
जवाब देंहटाएंबेहद मर्मिक ...हृदयस्पर्शी सृजन।
आज भी समाज ऐसी कूरघतियाँ कायम है
लाजवाब कथाकाव्य सृजन हेतु बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं।
सुधजी आपकी टिप्पणी रचना को पूर्णता प्रदान कर गई,बहुत बहुत आभार आपका।
जवाब देंहटाएंमैं समाज के छल से सदियों से पीड़ित हूँ
जवाब देंहटाएंकहीं नहीं कुछ बदला है,अब भी इस जग में
अगणित कंटक चुभते अब भी मेरे पग में
सब कहते हैं,स्त्री सबल हुई इस युग में
पर वो लहू नहीं बदला जो बहता रग में
वही रूढ़ियाँ,वही विषमता दिख जाती है
अपनों से बेबस स्त्री जब घिर जाती है
सच को बयां करती बहुत ही मार्मिक रचना!
हमारे समाज में आज भी महिलाओं को अपना जीवन अपने तरीके जीने का अधिकार नहीं है और विधवा को तो बिल्कुल भी नहीं! हाँ ये सच है कि आज महिलाएँ सबल हुईं हैं पर कुछ आज भी अबला नारी बन कर जीवन काट रहीं हैं! कुछ तो पहुँच गयीं अंतरीक्ष पर कुछ आज भी चौखट से पैर बाहर निकालने के लिए संघर्ष कर रहीं हैं! इन कुरितियों को तभी नष्ट किया जा सकता है जब सभी महिलाएँ एक साथ इसके खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करेंगी !क्योंकि अधिकतर महिलाएँ हीं हैं जो इन कुप्रथा को बड़वा देतीं हैं और ये भी सच है महिलाओं की कुप्रथा से आजादी की लड़ाई में सबसे अधिक रोड़ा महिलाएँ हीं बनती जो रूढ़िवादी विचारधारा की होतीं हैं!
मनीषा जी,आपकी सारगर्भित समीक्षात्मक प्रतिक्रिया कविता को सार्थक बना गयी,आपको मेरा हार्दिक आभार।
हटाएंसोच, विचार में बदलाव आ तो रहा है, पर गति बहुत धीमी है
जवाब देंहटाएंजी,सच कहा आपने,आपका बहुत शुक्रिया।
हटाएंदारुण!!
जवाब देंहटाएंवेदना से ओतप्रोत ।
बदलाव तो पहले से बहुत आया है जिज्ञासा जी पर ये समाज के तन के ऐसे छाले हैं जिनका घाव भरते भरते युग बीत जाता है ।
हृदय स्पर्शी सृजन।
आपने वेदना को स्वर दिया है ।
सस्नेह।
गहरे छूते हुए कविता...सच कुछ नहीं बदला। आपने कितने गहन होकर इन विचारों को उकेरा है, बहुत ही गहनतम लेखन। मन चीत्कार कर उठा...वाकई यह कविता दर्द की एक गहरी, मोटी और सख्त लकीन है जो समाज के चेहरे पर खींची गई है।
जवाब देंहटाएंमार्मिक अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत बहुत आभार अनिता जी,आपको मेरा सादर नमन।
जवाब देंहटाएंप्रिय जिज्ञासा जी, स्तब्ध हूं इस काव्य चित्र में संजोए दारुण प्रसंग की कल्पना करके। सभ्य समाज में आज भी क्या ये अमानवीय कृत्य होते हैं? ये बात विचलित करती है। पर एक कवि की साक्षी सबसे ज्यादा प्रामाणिक होती है इसलिए इस व्यवस्था के बारे में सोचकर ज्यादा दुख होता है। दर्शक दीर्घा में क्या एक भी व्यक्ति संवेदनशील नहीं रहा होगा , ये बात विचलित करती है। इस रचना को पढ़कर मैने बहुत सोचा पर अपने आसपास मुझे एक बार भी इस घटना याद नहीं आ सकी जिसमें इस तरह की अनैतिकता की गई हो। प्रिय मनीषा के विचारों से सहमत हूं। जागरूकता से ही ऐसी समस्याओं का निदान संभव है ।
जवाब देंहटाएंप्रिय सखी, आपकी भावनावों को समझ सकती हूँ, परंतु ये प्रसंग सचमुच न के बराबर भी नहीं होते हैं,परंतु हम ऐसे समाज में रहते हैं,जहां आज भी याद कदा स्त्रियाँ सती होती दिख जाती हैं और बहुत ज़ोर का हो हल्ला होता है,बस एक लम्बी चुप्पी होती है,हमारे मुख पर,मैंने ऐसे ही संदर्भ को महसूस किया जो मुझे टीस देता है,बस उसी को लिखने की कोशिश की,जिसे कभी कभी कुछ अपने लोग ही, परिस्थितियों का हवाला देकर उचित ठहराने की कोशिश करते हैं, आपका और मनीषा का कहना बिल्कुल सही है,की हमें हमेशा जागरूक रहने की ज़रूरत है।आपकी समीक्षात्मक प्रतिक्रिया को सादर नमन।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर बहुत मार्मिक रचना
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर आपकी बहुमूल्य टिप्पणी हमेशा प्रोत्साहित करती है।सादर नमन।
जवाब देंहटाएं"कैसी जग की रीत, रूढ़ियाँ घातक कितनी
जवाब देंहटाएंमीन फंसी काँटे में, आज हूँ, बेबस इतनी" - पुरुष-प्रधान समाज की विभत्स सोचों का परिणाम है औरतों का दमन .. वह विधवा हो या सधवा .. तथाकथित कृष्ण की नगरी मथुरा में ऐसे दृश्य आज भी आम हैं .. पुरुषों को नारी मन छीलकर भी मन शांत नहीं होता तो बाल तक छिल देते हैं ...
"सब कहते हैं,स्त्री सबल हुई इस युग में
पर वो लहू नहीं बदला जो बहता रग में" .. शायद ...
सुबोध जी,आपका बहुत बहुत आभार इतनी समीक्षात्मक टिप्पणी के लिए ,सृजन सार्थक हो गया,आपको मेरा सादर नमन।
जवाब देंहटाएं