लग रहा है, मैं तुम्हें पहचानती
वर्षों वर्षों से तुम्हें हूं जानती
मुझमें तुम हो, तुम में मैं हूं
फिर भला क्यूं मौन हो ?
ऐ सखी तुम कौन हो ?
आह ! ये आघात तुमसे
हो रहा कितनी सदी से
कितनी पीढ़ी तुमसे जन्मी इस धरा पे
पर तुम्हीं अब गौण हो
ऐ सखी तुम कौन हो ?
क्या नहीं है पास तेरे जो मेरे है
कौन सी कैसी ग़रीबी ये घेरे है
भार जो तेरे कपालों पे चढ़ा
जा रही किसका बनाने भौन हो
ऐ सखी तुम कौन हो ?
इस जहां की नींव तेरे क़र्ज़ में डूबी पड़ी है
पर तेरे हाथों में कसती क़र्ज़ की ही हथकड़ी है
भूख की विकराल पीड़ा झेलकर
बन ही जाती तुम सदा ही गौन हो
ऐ सखी तुम कौन हो ?
**जिज्ञासा सिंह**
इस जहां की नींव तेरे क़र्ज़ में डूबी पड़ी है
जवाब देंहटाएंपर तेरे हाथों में कसती क़र्ज़ की ही हथकड़ी है
भूख की विकराल पीड़ा झेलकर
बन ही जाती तुम सदा ही गौन हो
ऐ सखी तुम कौन हो ?
एक हृदयविदारक सृजन उस जीवट मानवी के नाम, सच में जिसके सर पर ढोई गई ईंट विश्व की हर इमारत में लगी है, पर ताउम्र जो बेघर रह , भूख ,प्यास जैसी विभीषिकाओं से जूझती हुई अपने परिवार को पालते हुए गृहस्थी के समस्त दायित्वों का निर्वहन करतीं है। एक संवेदनशील कवियत्री का मार्मिक सृजन जो समाज के विद्रूप पक्ष को दिखाता है। बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं प्रिय जिज्ञासा जी।
प्रिय रेणु जी,आपकी मनोबल बढ़ाती टिप्पणियां,कविता सृजन को सार्थक कर देती हैं,कितनी अर्थपूर्ण समीक्षा की है आपने, कितना भी आभार करूं कम है, सदैव स्नेह की अभिलाषा में जिज्ञासा सिंह 🙏🙏💐💐
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी🌼
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार शिवम जी,सादर नमन।
हटाएंभूख की विकराल पीड़ा झेलकर
जवाब देंहटाएंबन ही जाती तुम सदा ही गौन हो
ऐ सखी तुम कौन हो ?
मार्मिक सृजन जिज्ञासा जी!
आपका बहुत बहुत आभार मीना जी,आपको मेरा सादर नमन।
हटाएंसागर सी गहन! धैर्य से आगे बढ़ती हृदय तक उतरती सुंदर चित्राभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना जिज्ञासा जी।
आपका बहुत बहुत आभार कुसुम जी,सादर नमन।
हटाएंबहुत सुन्दर और दिल को कचोटती हुई कविता !
जवाब देंहटाएंनिराला जी की कविता -
'वह तोड़ती पत्थर इलाहाबाद के पथ पर'
की याद आ गयी.
आदरणीय सर आपका बहुत बहुत आभार, आपको मेरा सादर नमन।
हटाएंदशकों पूर्व निराला जी की रची हुई कविता 'वह तोड़ती पत्थर' का स्मरण करवा दिया आपने जिज्ञासा जी। बहुत संवेदनशील रचना।
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार जितेन्द्र जी,आपकी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक नमन करती हूं।
हटाएंहृदयस्पर्शी रचना !!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार अनुपमा जी,आपको मेरा सादर नमन।
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (12-07-2021 ) को 'मानसून जो अब तक दिल्ली नहीं पहुँचा है' (चर्चा अंक 4123) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
रवीन्द्र सिंह यादव जी,नमस्कार !
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को चर्चा मंच मैं शामिल करने के लिए आपका हार्दिक आभार व्यक्त करती हूं,सादर शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह...
आह ! ये आघात तुमसे
जवाब देंहटाएंहो रहा कितनी सदी से
कितनी पीढ़ी तुमसे जन्मी इस धरा पे
पर तुम्हीं अब गौण हो
ऐ सखी तुम कौन हो ?
मर्मस्पर्शी रचना...
आपका बहुत बहुत आभार एवम अभिनंदन।
जवाब देंहटाएंसोच रहा था कि शब्द चित्र को बता रहे हैं या चित्र शब्दों को। सुन्दर शब्दचित्र।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार प्रवीण जी, आपको मेरा सादर नमन।
हटाएंलग रहा है, मैं तुम्हें पहचानती
जवाब देंहटाएंवर्षों वर्षों से तुम्हें हूं जानती
मुझमें तुम हो, तुम में मैं हूं
फिर भला क्यूं मौन हो ?
ऐ सखी तुम कौन हो ?---आपने बहुत सा कह दिया इन पंक्तियों में...बहुत अच्छी रचना है...खूब बधाई
Apki sundar सराहना का हार्दिक आभार एवम नमन।
हटाएंइस जहां की नींव तेरे क़र्ज़ में डूबी पड़ी है
जवाब देंहटाएंपर तेरे हाथों में कसती क़र्ज़ की ही हथकड़ी है
भूख की विकराल पीड़ा झेलकर
बन ही जाती तुम सदा ही गौन हो
एक नारी मजदूर के जीवन की गाथा को बहुत मार्मिक शब्द दिए हैं ।
सुंदर और विचारणीय रचना ।
अदरणीय आपकी सराहना संपन्न प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन करती हूं।
हटाएंआह ! ये आघात तुमसे
जवाब देंहटाएंहो रहा कितनी सदी से
कितनी पीढ़ी तुमसे जन्मी इस धरा पे
पर तुम्हीं अब गौण हो
ऐ सखी तुम कौन हो ?बेहद हृदयस्पर्शी रचना जिज्ञासा जी।
अनुराधा जी आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हृदय से नमन करती हूं।
हटाएंअच्छी मार्मिक कविता !!
जवाब देंहटाएंपूरण खण्डेलवाल जी, आपका ब्लॉग पर हार्दिक स्वागत करती हूं, आपकी टिप्पणी को हार्दिक नमन एवम वंदन।
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक रचना.
जवाब देंहटाएंघर दूसरों का जो बनती रही है उसका अपना ही घर इस संसार में नहीं है.. ये कितनी हृदयविदारक बात है. याद आई " वो तोडती पत्थर..."
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बहुत बहुत रोहितास जी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
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