दिन में तारे फिर
नज़र आने लगे ।
बन गए मेहमान
सबका द्वार खटकाने लगे ॥
सड़क चिकनी है बनी
कल तक थीं जो पगडंडियाँ ।
हैं हवाओं से भरी दिखतीं
हज़ारों मंडियाँ ।
पेड़ अपने पाँव चलकर
छाँव तक जाने लगे ।
कलम काग़ज़ बिक रहा है
सज गई हैं क्यारियाँ ।
साथ ही रक्खी हुई
दिखतीं हैं पैनी आरियाँ ॥
फूलदानों में लगे कुछ
बाग इतराने लगे
रोकना उनको मुझे था
रोकते मुझको हैं वो
घर में बागों मंडियों में
बेंचते सबको हैं जो
उनके आगे हर मुकुट
हैं शीश झुक जाने लगे ॥
**जिज्ञासा सिंह**
कलम काग़ज़ बिक रहा है
जवाब देंहटाएंसज गई हैं क्यारियाँ ।
साथ ही रक्खी हुई
दिखतीं हैं पैनी आरियाँ ॥
फूलदानों में लगे कुछ
बाग इतराने लगे
बहुत सुन्दर सराहनीय भावाभिव्यक्ति ।
बहुत बहुत आभार मीना जी ।
हटाएंरोकना उनको मुझे था
जवाब देंहटाएंरोकते मुझको हैं वो!
वाह!!! बहुत सुंदर।
बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय विश्वनोहन जी ।
हटाएंबहुत सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार ज्योति जी।
हटाएंबहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका अनुराधा जी।
हटाएंकुछ सोचने पर मजबूर करे ऐसा लेखन, बधाई!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय दीदी।
हटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय दीदी।
जवाब देंहटाएं