दिन में तारे

 

दिन में तारे फिर  

नज़र आने लगे 

बन गए मेहमान 

सबका द्वार खटकाने लगे 


सड़क चिकनी है बनी

कल तक थीं जो पगडंडियाँ 

हैं हवाओं से भरी दिखतीं

हज़ारों मंडियाँ 

पेड़ अपने पाँव चलकर

छाँव तक जाने लगे 


कलम काग़ज़ बिक रहा है

सज गई हैं क्यारियाँ 

साथ ही रक्खी हुई 

दिखतीं हैं पैनी आरियाँ 

फूलदानों में लगे कुछ

बाग इतराने लगे


रोकना उनको मुझे था

रोकते मुझको हैं वो

घर में बागों मंडियों में

बेंचते सबको हैं जो

उनके आगे हर मुकुट 

हैं शीश झुक जाने लगे 


**जिज्ञासा सिंह**

11 टिप्‍पणियां:

  1. कलम काग़ज़ बिक रहा है
    सज गई हैं क्यारियाँ ।
    साथ ही रक्खी हुई
    दिखतीं हैं पैनी आरियाँ ॥
    फूलदानों में लगे कुछ
    बाग इतराने लगे
    बहुत सुन्दर सराहनीय भावाभिव्यक्ति ।

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  2. रोकना उनको मुझे था

    रोकते मुझको हैं वो!
    वाह!!! बहुत सुंदर।

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  3. कुछ सोचने पर मजबूर करे ऐसा लेखन, बधाई!

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