चल मुझे संतोष करना,
फिर सिखा दे मन ।
भाव संयम से भरी,
नौका हो ये जीवन ॥
आत्म रक्षा के लिए,
सुंदर बनाना चित्तवृत्ति ।
न कोई तृष्णा सताए,
द्वेष न हो मनोवृत्ति ॥
कर्म ही हो ध्येय मेरा
पंथ अनुशासन ॥
बनना वैरागी नहीं,
बस अनुग्रह का मार्ग हो ।
साधना में डूब जाऊँ,
सिद्धियाँ सन्मार्ग हों ॥
क्षीण हो जाए अहम
हो प्रेम रस का संचयन ॥
इस विलासी जीव को,
संतोष का वरदान देना ।
आत्मसंतुष्टि जरूरी,
नित्यप्रति ये ज्ञान देना ॥
चेतना हो संयमी
अद्वैत का वंदन ॥
**जिज्ञासा सिंह**
जिज्ञासा, इतना सब मांग कर तुम संतोषी कैसे बन पाओगी?
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय सर ।
हटाएंयदि ऐसा हो जाये तो मन सन्यासी हो जाएगा । सुंदर सृजन ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय दीदी ।
हटाएंअतीव सुंदर प्रार्थना !!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका आदरणीय दीदी ।
हटाएंसम्पूर्ण गीता का ज्ञान है इन पंक्तियों में ,बहुत सुंदर रचना !!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका अनुपमा जी आपकी इस सुंदर प्रतिक्रिया के लिए। आपको मेरा नमन।
जवाब देंहटाएंचिन्तन मनन करने योग्य बहुत ही सुन्दर प्रार्थना,सादर नमन जिज्ञासा जी 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार कामिनी जी ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर भावपूर्ण सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार मनोज जी ।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (11-06-2022) को चर्चा मंच "उल्लू जी का भूत" (चर्चा अंक-4458) (चर्चा अंक-4395) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चर्चा मंच में रचना का चयन रचनाकर का मनोबल बढ़ाता है ।आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय सर।मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।
हटाएंजीवन जीने की कला को सिखाती और आशा का संचार करती बहुत अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंबधाई
बहुत आभार ज्योति जी !
हटाएंआत्म कल्याण का सोपान चढ़ने को व्याकुल मन ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन जिज्ञासा जी।
आपका बहुत बहुत आभार कुसुम जी ।
जवाब देंहटाएंमनन करने योग्य बहुत सुंदर रचना, जिज्ञासा दी।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार ज्योति जी ।
हटाएंक्षीण हो जाए अहम
जवाब देंहटाएंहो प्रेम रस का संचयन ॥
बस इतना भी जायें कि अहम ना हो और मन में प्रेम संचित होने लगे तो मन में संतोष हो जाये ।
लाजवाब सृजन
वाह!!!
बहुत बहुत आभार सुधा जी । आपकी सार्थक प्रतिक्रिया ने रचना को सार्थक कर दिया।
हटाएंअभिनन्दन जिज्ञासा जी। संतोष का तो विचार ही सर्वोत्तम है। जिसके पास संतोष है, उसके पास क्या नहीं?
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार जितेंद्र जी । आपकी सार्थक प्रतिक्रिया ने रचना को सार्थक कर दिया ।
हटाएंसुंदर रचना ! पर संतोष मन को करना सिखाना है, वह क्या सीखा पाएगा वो तो खुद सदा असंतोषी रहा है !
जवाब देंहटाएंजी, आपका बहुत बहुत आभार आपका ।
हटाएंअहम् का नाश ... संतोष का वरदान ...
जवाब देंहटाएंबहुत कमाल की भावना को रूप दिया है ...
बहुत बहुत आभार आपका ।
जवाब देंहटाएंसुंदर भावपूर्ण सृजन जिज्ञासा जी
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका संजय जी।
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