परम संतोष


चल मुझे संतोष करना,
फिर सिखा दे मन ।
भाव संयम से भरी,
नौका हो ये जीवन ॥

आत्म रक्षा के लिए, 
सुंदर बनाना चित्तवृत्ति ।
न कोई तृष्णा सताए,
द्वेष न हो मनोवृत्ति ॥
कर्म ही हो ध्येय मेरा
पंथ अनुशासन ॥

बनना वैरागी नहीं,
बस अनुग्रह का मार्ग हो ।
साधना में डूब जाऊँ,
सिद्धियाँ सन्मार्ग हों ॥
क्षीण हो जाए अहम
हो प्रेम रस का संचयन ॥

इस विलासी जीव को,
संतोष का वरदान देना ।
आत्मसंतुष्टि जरूरी,
नित्यप्रति ये ज्ञान देना ॥
चेतना हो संयमी
अद्वैत का वंदन ॥

**जिज्ञासा सिंह**

30 टिप्‍पणियां:

  1. जिज्ञासा, इतना सब मांग कर तुम संतोषी कैसे बन पाओगी?

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  2. यदि ऐसा हो जाये तो मन सन्यासी हो जाएगा । सुंदर सृजन ।

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  3. अतीव सुंदर प्रार्थना !!

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  4. सम्पूर्ण गीता का ज्ञान है इन पंक्तियों में ,बहुत सुंदर रचना !!

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  5. बहुत बहुत आभार आपका अनुपमा जी आपकी इस सुंदर प्रतिक्रिया के लिए। आपको मेरा नमन।

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  6. चिन्तन मनन करने योग्य बहुत ही सुन्दर प्रार्थना,सादर नमन जिज्ञासा जी 🙏

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  7. बहुत ही सुंदर भावपूर्ण सृजन

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  8. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (11-06-2022) को चर्चा मंच     "उल्लू जी का भूत"   (चर्चा अंक-4458)  (चर्चा अंक-4395)     पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'    

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    1. चर्चा मंच में रचना का चयन रचनाकर का मनोबल बढ़ाता है ।आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय सर।मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।

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  9. जीवन जीने की कला को सिखाती और आशा का संचार करती बहुत अच्छी रचना

    बधाई

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  10. आत्म कल्याण का सोपान चढ़ने को व्याकुल मन ।
    बहुत सुंदर सृजन जिज्ञासा जी।

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  11. मनन करने योग्य बहुत सुंदर रचना, जिज्ञासा दी।

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  12. क्षीण हो जाए अहम
    हो प्रेम रस का संचयन ॥
    बस इतना भी जायें कि अहम ना हो और मन में प्रेम संचित होने लगे तो मन में संतोष हो जाये ।
    लाजवाब सृजन
    वाह!!!

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    1. बहुत बहुत आभार सुधा जी । आपकी सार्थक प्रतिक्रिया ने रचना को सार्थक कर दिया।

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  13. अभिनन्दन जिज्ञासा जी। संतोष का तो विचार ही सर्वोत्तम है। जिसके पास संतोष है, उसके पास क्या नहीं?

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    1. बहुत बहुत आभार जितेंद्र जी । आपकी सार्थक प्रतिक्रिया ने रचना को सार्थक कर दिया ।

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  14. सुंदर रचना ! पर संतोष मन को करना सिखाना है, वह क्या सीखा पाएगा वो तो खुद सदा असंतोषी रहा है !

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  15. अहम् का नाश ... संतोष का वरदान ...
    बहुत कमाल की भावना को रूप दिया है ...

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  16. सुंदर भावपूर्ण सृजन जिज्ञासा जी

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