मोहे मत दीजो जंजाल

 


पिया मोहे मत दीजो जंजाल 

प्रेम बिना मोरा मनवाँ सूना

तन निर्धन कंगाल 


बाँह पसारे खड़ी ड्योढ़िया

सजी धजी ऋतु आती 

तीव्र विकल हो नैना बरसें

बरखा देख अघाती 

बाल कोंपलें शाखा झूलें

स्वाति देखि निहाल 

पिया मोहे मत दीजो जंजाल 


ऋतु की सरस छवि मन बस जाए

और  माँगे कुछ ये 

आँचल भर जब सृष्टि निहारे

भरे कोख सरबस ये 

तन की मिट गई मन की मिट गई

मिट गया क्लेश का काल 

पिया मोहे मत दीजो जंजाल 


अगध अगाध सिंधु  सरिता

सब नैनन के वासी 

छोड़ि बसे मन ये जग सारा

मन में बसे जब कासी 

ऐसे हृदय  नेह की भूखी

यहि नैहर ससुराल 

पिया मोहे मत दीजो जंजाल 


**जिज्ञासा सिंह**

13 टिप्‍पणियां:

  1. जो कासी मन बसे जिज्ञासा, रामै कौन निहोरा ---

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  2. छोड़ि बसे मन ये जग सारा
    मन में बसे जब कासी ॥
    ऐसे हृदय औ नेह की भूखी
    यहि नैहर ससुराल ।
    पिया मोहे मत दीजो जंजाल ॥
    वाह !! बहुत ख़ूब !!
    आध्यात्म भाव से परिपूर्ण अत्यंत सुन्दर सृजन जिज्ञासा जी ।

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  3. सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार मीना जी ।

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  4. बहुत बहुत आभार आपका।ब्लॉग पर आपका स्वागत है।स्नेह बनाए रखें।

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  5. बड़ा मुश्किल है इस दुनिया में आकर जंजाल से बचना -इसे ही तो'माया' कहा है ज्ञानियों ने.

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    1. आपकी प्रतिक्रिया हमेशा मनोबल बढ़ा जाती है, हार्दिक आभार और अभिनंदन आपका।

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  6. बहुत खूब प्रिय जिज्ञासा जी।प्रेम के जंजाल से बचा भी ना जाये और इसके साथ जिया भी ना जाये।इसी से जीवन में सावन और बसंत है।अत्यंत गूढ मंथन से उपजी रचना के लिए हार्दिक बधाई

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