छायाचित्र- संजय कुमार जी
मैं हूँ एक आज़ाद परिंदा
पंख मेरे मत कतरो ।
काट दिए सब कानन कुंजन
मानव अब ठहरो ॥
दूर गगन में उड़ते उड़ते
थक धरती पर आऊँ ।
अंधियारी कारी रैना में
नीड़ गिरा मैं पाऊँ ॥
दो दाना और जल माँगू मैं
थोड़ा रहम करो ।
मैं हूँ एक आज़ाद परिंदा
पंख मेरे मत कतरो ॥
तृष्णा ऐसी बढ़ी मनुज की
पेड़ कटा,डाली टूटी ।
क्या अपराध हुआ हमसे
दुनिया यूँ रूठी ॥
हम जैसे नन्हें जीवों पर
कुछ तो ध्यान धरो ।
मैं हूँ एक आज़ाद परिंदा
पंख मेरे मत कतरो ॥
जब न होंगे पेड़ और
पादप, वन की हरियाली ।
धरती से अम्बर तक सृष्टि
सदा दिखेगी काली ॥
तनिक सहेजो प्रकृति
तनिक जीवों पर रहम करो ॥
मैं हूँ एक आज़ाद परिंदा
पंख मेरे मत कतरो ।।
**जिज्ञासा सिंह**
पंछी, पादप, पेड़ यही तो धरती की शान हैं, मानव इन्हें नष्ट करता कितना नादान है
जवाब देंहटाएंत्वरित और सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आपका बहुत बहुत आभार दीदी !
जवाब देंहटाएंपक्षियों व परिंदों पर घात करने वाले मनुष्य पर शानदार व्यंग्य
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका आदरणीय
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (12-11-22} को "पंख मेरे मत कतरो"(चर्चा अंक 4610) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
क्षमा चाहती हूँ रविवार (13 -11-22)
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार कामिनी जी ।
हटाएंसार्थक गुहार ।
जवाब देंहटाएंजब न होंगे पेड़ और
पादप, वन की हरियाली ।
धरती से अम्बर तक सृष्टि
सदा दिखेगी काली ॥
तनिक सहेजो प्रकृति
तनिक जीवों पर रहम करो ॥
मैं हूँ एक आज़ाद परिंदा
पंख मेरे मत कतरो ।।
समय की मांग है ऐसी रचनाएं।
आपकी सार्थक प्रतिक्रिया को नमन ।
हटाएंवाह अप्रतिम रचना
जवाब देंहटाएंआपका बहुत आभार भारती जी ।
हटाएंचिंतन परक सृजन सखी
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका सखी ।
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