फिर मचा है शोर, चल हिंदी बचाएँ।
बदलियों में है घिरी, सूरज बुलाएँ॥
परखने से काम,अब चलना नहीं है,
समझने का भाव हर मन में जगाएँ॥
अक्षरों की फसल फिर बोनी पड़ेगी,
हैं उगानी वर्णमाला व्यंजनाएँ ॥
भ्रमित हैं जो दूसरी भाषा से मोहित,
मूल्य अपनी मातृभाषा का बताएँ॥
किस तरह उन्नति मिले नव सृजन को,
ढूँढनी नव राह नव संभावनाएँ॥
**जिज्ञासा सिंह**
हिंदी को तो हम क्या बचाएंगे, अलबत्ता पर हर बार हिंदी-दिवस पर उसकी दुर्दशा पर मगरमच्छ वाले आंसू ज़रूर बहाएंगे.
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय सर।
हटाएंअक्षरों के फसल फिर बोनी पढेगी उगानी वर्णमाला व्यंजनाएं ..
जवाब देंहटाएंढूढनी नव राह नव संभावनाएअं
बहुत आभार ऋतु जी ।
हटाएंहिंदी दिवस पर अति प्रेरित करती सुंदर पंक्तियाँ
जवाब देंहटाएंबहुत आभार दीदी ।
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (12-1-23} को "कुछ कम तो न था ..."(चर्चा अंक 4634) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार सखी रचना के चयन के लिए।
हटाएंपरखने से काम,अब चलना नहीं है,
जवाब देंहटाएंसमझने का भाव हर मन में जगाएँ॥
अक्षरों की फसल फिर बोनी पड़ेगी,
हैं उगानी वर्णमाला व्यंजनाएँ ॥
बहुत सुन्दर भावनाएँ व्यक्त की है आपने सृजन के माध्यम से । मातृभाषा के गौरव को मान प्रदान करती अति उत्तम भावाभिव्यक्ति ।
आपकी सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आपका बहुत आभार मीना जी ।
हटाएंभ्रमित हैं जो दूसरी भाषा से मोहित,
जवाब देंहटाएंमूल्य अपनी मातृभाषा का बताएँ॥
अपनी मातृभाषा का मूल्य समझना और समझाना जरूरी हो गया है । हिन्दी का विकास ही हिन्दुत्व का विकास है ।
लाजवाब सृजन हेतु बहुत बहुत बधाई सखी !
आपकी सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आपका बहुत आभार सुधा जी ।
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