मेरी उड़ गई पतंग,
देखो आसमाँ के पार ।
रेशम डोरी,लाल रंग,
होके डोर पे सवार ॥
जब उड़ी तो बादल झूम गया,
धरती को झुककर चूम गया ,
लहरायी तो लहरों के संग,
लहराता सागर घूम गया ॥
आया ऋतुओं का मौसम,
आई झूम के बहार ।
मेरी उड़ गई पतंग,
देखो आसमाँ के पार ॥
वो रंग-बिरंगीं चटकीली,
कुछ सकुचाई, कुछ शर्मीली ।
जो उड़तीं खोले पर अपने,
दिखती है सुंदर स्वप्नीली ॥
पीछे पड़ीं पतंगें,
पेच लड़ाने को तैयार ।
मेरी उड़ गई पतंग,
देखो आसमाँ के पार ॥
चिड़ियों सी उड़ती जाये वो,
तितली सा रंग सजाए वो ।
मैं डोर अगर कस के पकड़ूँ,
फड़के औ भागी जाए वो ॥
वो उड़कर मुझसे जीती,
मैं रुक कर जाती हार।
मेरी उड़ गई पतंग,
देखो आसमाँ के पार ॥
लोहड़ी पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ💐💐
**जिज्ञासा सिंह**
बहुत ही सुन्दर और सामयिक गीत. बधाई और शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार जयकृष्ण जी । मकर संक्रांति पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।
हटाएंपतंग का मौसम आया । सुंदर भावपूर्ण रचना । मन भी पतंग हो चला ।
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार दीदी। मकर संक्रांति पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।
हटाएंवाह! बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार विश्वमोहन जी । मकर संक्रांति पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।
हटाएंमकर संक्रांति पर सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार आदरणीय दीदी । मकर संक्रांति पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 15 जनवरी 2023 को साझा की गयी है
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आपका बहुत बहुत आभार सखी। मकर संक्रांति पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।
हटाएंवाह जिज्ञासा ! तुमने लखनऊ में बिताए गए हमारे बचपन के दिन याद दिला दिए.
जवाब देंहटाएंहम लोग बंगाली मोहल्ले रिसालदार पार्क में रहते थे और उन्हीं दिनों का एक गाना था - '
चली-चली रे पतंग मेरी चली रे,
चली बादलों के पार, हो के डोर पे सवार
सारी दुनिया ये देख-देख, जली रे ---
इतनी सुंदर सार्थक टिप्पणी के लिए आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय सर। मकर संक्रांति पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कलरविवार (15-1-23} को "भारत का हर पर्व अनोखा"(चर्चा अंक 4635) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
आपका बहुत बहुत आभार सखी । मकर संक्रांति पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।
जवाब देंहटाएंमन तो पतंग ही बन गया आपकी इस सुन्दर रचना को पढ़ कर और विचरण करने लगा ऊँचे आकाश में, दूर... कहीं दूरबादलों के पार। खूबसूरत रचना जिज्ञासा जी!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय
जवाब देंहटाएंवाह! आनंद आ गया जिज्ञासा जी घोड़ पे सवार है ये मन भी तो पंतग के साथ उड़ता है।
जवाब देंहटाएंसुंदर मनभावन सृजन ।
बहुत बहुत आभार आपका। आपकी सुंदर सकारात्मक प्रतिक्रिया पढ़ मन बागबाग हो गया। आभार सखी।
जवाब देंहटाएंवाह बहुत ही सुन्दर रचना बचपन और पतंग की चंचलता के साथ मन की उड़ान को रेखांकित करती है
जवाब देंहटाएंबहुत आभार सखी ।
जवाब देंहटाएंवाह!प्रिय जिज्ञासा ,बहुत खूबसूरत रचना ।
जवाब देंहटाएंवो उड़कर मुझसे जीती,
जवाब देंहटाएंमैं रुक कर जाती हार।
मेरी उड़ गई पतंग,
देखो आसमाँ के पार ॥///
संक्रांति के पावन पर्व पर उसकी अभिन्न संगिनी पतंग के लिए अत्यंत भाव-पूर्ण और सुन्दर रचना प्रिय जिज्ञासा।हमारे यहाँ करनाल में तो पतंगबाजी की ये विहंगमता बसंत पंचमी पर खूब देखने को मिलती है।इस मधुर गीत की रचना[ के लिए बधाई और संक्रांति की शुभकामनाएँ 🙏🙏🙏🌹🌹
वाह बहुत ही मोहक रचना
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