महिला दिवस की तैयारियाँ हैं


देवियों और सज्जनों के

मध्य बैठी नारियाँ हैं।

सज रहा पांडाल महिला 

दिवस की तैयारियाँ हैं॥


भैंस के नथुने के जैसे

नाक में बेसर सजाए।

हाथ में सौ-सौ चुड़ीला

पहन काँधे तक चढ़ाए॥

काढ़तीं गोबर हैं गातीं

गीत पुरवाई के जो,

पाथतीं कंडे बनातीं

गर्म खारी रोटियाँ हैं॥


पंच सरपंची की टोपी

सज रही नव शीश पर।

मंच पर पतिदेवता हैं

वे हैं पिछली सीट पर॥

दस्तख़त का मूल्य सज 

चलकर चुकानें आ गईं,

स्वयं के उद्धार पर 

ख़ुद ही बजातीं तालियाँ हैं॥


जगत का हर ज्ञान 

धरती से गगन तक घूम डाला।

कर गुजरने में कभी

आँड़े न आई पाठशाला॥

भावना के मूल्य पर

प्रवंचना हावी रही,

डाल दी उनके ही आगे

स्वयं की सौ बोटियाँ हैं॥


भद्र जन का क्या कहें

सुभद्रियों की चाल वो।

हर युगों में काटती

अपनी रही हैं डाल जो।।

कौन फिर उसकी सुने

जिसने स्वयं को कोख में,

क़त्ल कर डाला निकाली

स्वयं की ही अर्थियाँ हैं॥


सज रहा पांडाल महिला 

दिवस की तैयारियाँ हैं॥


**जिज्ञासा सिंह**

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर रचना, जिज्ञासा दी।

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    1. बहुत बहुत आभार ज्योति दीदी आपका।
      आपकी टिप्पणियां हमेशा नव लेखन का मार्ग प्रशस्त करती हैं।

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  2. पंच सरपंची की टोपी

    सज रही नव शीश पर।

    मंच पर पतिदेवता हैं

    वे हैं पिछली सीट पर॥

    दस्तख़त का मूल्य सज

    चलकर चुकानें आ गईं,

    स्वयं के उद्धार पर

    ख़ुद ही बजातीं तालियाँ हैं॥
    अकाट्य सच उकेरा है आपने जिज्ञासा जी ! कैसा उत्थान है नारी का...अभी तक नथुने विध रहे हैं सुहाग के नाम पर चुडै़ले लगे हैं हथकड़ियों से...
    सही कहा आपने कि नारी कि कौन सुनेगा जब तक वो अपनी ही कोख में अपनी अर्थियां सजाती रहेगी तब तक न कुछ करने लायक बन सकती ना ही कुछ कहने लायक। फिर कैसा उत्थान ? ये स्वयंसिद्धा की कमजोर मानसिकता ही है कि धरती आसमान एक कर चली है पुनः पुनः स्वयं को सिद्ध करने ।
    सम्पूर्ण सत्य उजागर करती इस लाजवाब कृति हेतु अनंत साधुवाद आपको 👌👌🙏🙏🙏🙏

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    1. बहुत आभार सखी, आपकी इस शानदार और प्रेरक प्रतिक्रिया मेरेबली संजीवनी का काम करेगी ।

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  3. Vikramsinghbhadoriya@gmail.com

    धन्य हो जिज्ञासा कि जिसने एक ही कविता में लपेट दिया भद्र जन और भद्नियों को

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    1. आपकी टिप्पणी मेरे नव सृजन को धर देगी, संजीवनी है मेरे लिए। आभार और अभिनंदन आपका।

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  4. धन्य हो Jigyasa कि तुमने एक ही घाट पर वाट लगा दी समाज के सारे भद्रजन और भद्रानियों की.
    खोल दी ढकी हुयी भीतर की पोल को
    अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के ढोल की... 😄 😄 😄
    साधुवाद करारा व्यंग करती इस विलक्षण कविता के लिये.
    Vikramsinghbhadoriya@gmail.com

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  5. जी, बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
    इस प्रेरक प्रतिक्रिया ने सृजन को सार्थक कर दिया।

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