सोचा हुआ नहीं होता जब

 

सोचा हुआ नहीं होता जब

बिखर-बिखर रोता है मन।

दिखती हैं अवरुद्ध दिशाएँ

चारों तरफ़ नया घर्षन॥


आग उगलते शब्द स्वयं के

दूजे के लगते अंगार।

आह कराह दिखे बस संगी

निर्मल जल भी लगता खार।

है खटास की नदी बह रही

बीच भँवर में डोले नाव,

ऊपर से आती लहरों का

अपनी धुन पर अपना नर्तन॥


इधर नदी है उधर समुंदर

दिखता उसके पार हिमालय।

होनी का घर वहीं कहीं पर

हो तटस्थ करती वो निर्णय।

लगी अदालत की चौखट पर

अभ्यर्थी बन शीश झुकाना

वो भी सुन ले एक फ़रियादी

दुःखी खड़ा ले अंतर्मन॥


निःसंदेह सुनेगी होनी

सुनकर अभिप्राय समझेगी।

कड़ुई विषम परिस्थिति का 

वो हँसकर न उपहास करेगी।

विपदाओं के घन काटेगी

इन्द्रधनुष निकलेंगे अगणित,

यही विनय है यही याचना

उसके सम्मुख यही नमन॥


जिज्ञासा सिंह

16 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर सृजन, जब स्वयं के शब्द आग उगलते हों तो सामने से शीतल जल कैसे आ सकता है, अंगार ही आने वाले हैं, हिमालय के कैलाश शिखर भी भीतर हैं, मानव जिससे चाहे उससे जुड़ सकता है

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    1. आपकी प्रतिक्रिया से रावण को सार्थकता मिली । हार्दिक आभार दीदी।

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" मंगलवार 25 जुलाई 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !  

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    1. रचना का पांच लिंकों में शामिल होना मेरे लिए हर्ष का विषय है आभार आदरणीय।

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  3. कश्मकश की दीवारें बड़ी कठोर होती हैं. समय ही घाव देता है और वही मरहम भी.
    सुंदर रचना.
    बधाई एवं शुभकामनाएँ.

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    1. आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मेरा संबल है। बहुत बहुत आभार आदरणीय।

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  4. दिगंबर नासवा24 जुलाई 2023 को 6:24 pm बजे

    बहुत ख़ूब ये मन की वैचारिकी है … बैचैनी है जो शब्द ढूँढ लेती है … सुंदर रचना …

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  5. बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना एक-एक शब्द गहन अर्थ को प्रस्तुत कर रहा है।सादर

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  6. बहुत बहुत आभार प्रिय सखी। बहुत दिनों बाद आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मिली, स्नेह बनाए रखें😊😊👏👏

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  7. निःसंदेह सुनेगी होनी

    सुनकर अभिप्राय समझेगी।

    कड़ुई विषम परिस्थिति का

    वो हँसकर न उपहास करेगी।
    बहुत ही सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति।

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