दाँत से पकड़ा जो आँचल
दाँत से पकड़ा जो आँचल
कह रहा है ढील दे दो,
आज छूना चाहता है
समय के विस्तार को।
पंख पहले से उगे हैं
है परों में जान अब भी,
माँगता है वह अकिंचन
स्वयं के अधिकार को॥
देखना उसकी किनारी,
खिल रहे हैं फूल अब भी।
खूब कलियाँ आ रही हैं
ला रही हैं नवल सुरभी।
बस उन्हें नित सींचना है
और सहलाना विनय से,
हो सुगन्धित कर सकेंगे,
भूमि के उद्धार को॥
याद कर लो धूप में वे
छा गए थे छाँव बनकर।
घेरकर चारों तरफ़ से
एक सुंदर गाँव का घर।
गाँव में वो घर औ घर में
माँ से लिपटे थे हुए,
बस उन्हीं कोमल मनोभावों
को सुंदर प्यार को॥
माँगता है आज जो वह
माँगना पहले उसे था।
पर समय का मूल्य देकर
आसमाँ न चाहिए था।
देके अपनी आरज़ुएँ
समय को उसने जिया जो
अब चुकाने आ गया वह
समय हर उपकार को॥
जिज्ञासा सिंह
लखनऊ
सुन्दर एवं भावपूर्ण गीत !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार सर।
हटाएंआहा अति सुंदर भावपूर्ण गीत जिज्ञासा जी।
जवाब देंहटाएंसस्नेह।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार ५ दिसम्बर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
अहा! आख़िर सूखा खत्म हुआ। सखी से मुलाकात हो ही गई।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार और अभिनंदन आपका रचना के चयन के लिए।
सूखा तो कभी रहा ही नहीं
हटाएंहरी-भरी रचनाएं रही है हरदम
हाँ, पाठक कम हो रहे हैं
सारे के सारे फेसबुक में टिक्की लगा रहे हैं
सादर
गहरी भावपूर्ण रचना है
जवाब देंहटाएंदाँत से पकड़ा जो आँचल
जवाब देंहटाएंकह रहा है ढील दे दो,
आज छूना चाहता है
समय के विस्तार को।
वाह!!!
बहुत ही सुंदर अप्रतिम
सारगर्भित सृजन।
वाह!!लाजवाब सृजन।
जवाब देंहटाएंमुक्ति की आकांक्षा जगाता सुंदर गीत
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूबसूरत भाव संजोये उत्कृष्ट कृति ।
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