दाँत से पकड़ा जो आँचल.. गीत


दाँत से पकड़ा जो आँचल


दाँत से पकड़ा जो आँचल 

कह रहा है ढील दे दो,

आज छूना चाहता है

समय के विस्तार को।


पंख पहले से उगे हैं 

है परों में जान अब भी,

माँगता है वह अकिंचन

स्वयं के अधिकार को॥


देखना उसकी किनारी,

खिल रहे हैं फूल अब भी।

खूब कलियाँ आ रही हैं 

ला रही हैं नवल सुरभी।

बस उन्हें नित सींचना है

और सहलाना विनय से,

हो सुगन्धित कर सकेंगे,

भूमि के उद्धार को॥


याद कर लो धूप में वे 

छा गए थे छाँव बनकर।

घेरकर चारों तरफ़ से

एक सुंदर गाँव का घर।

गाँव में वो घर औ घर में

माँ से लिपटे थे हुए,

बस उन्हीं कोमल मनोभावों

को सुंदर प्यार को॥


माँगता है आज जो वह

माँगना पहले उसे था।

पर समय का मूल्य देकर

आसमाँ न चाहिए था।

देके अपनी आरज़ुएँ 

समय को उसने जिया जो

अब चुकाने आ गया वह

समय हर उपकार को॥


जिज्ञासा सिंह

लखनऊ

10 टिप्‍पणियां:

  1. आहा अति सुंदर भावपूर्ण गीत जिज्ञासा जी।
    सस्नेह।
    -------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार ५ दिसम्बर २०२३ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. अहा! आख़िर सूखा खत्म हुआ। सखी से मुलाकात हो ही गई।
    बहुत आभार और अभिनंदन आपका रचना के चयन के लिए।

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    1. सूखा तो कभी रहा ही नहीं
      हरी-भरी रचनाएं रही है हरदम
      हाँ, पाठक कम हो रहे हैं
      सारे के सारे फेसबुक में टिक्की लगा रहे हैं
      सादर

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  3. दिगंबर नासवा5 दिसंबर 2023 को 6:48 am बजे

    गहरी भावपूर्ण रचना है

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  4. दाँत से पकड़ा जो आँचल

    कह रहा है ढील दे दो,

    आज छूना चाहता है

    समय के विस्तार को।
    वाह!!!
    बहुत ही सुंदर अप्रतिम
    सारगर्भित सृजन।

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  5. मुक्ति की आकांक्षा जगाता सुंदर गीत

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  6. बहुत ख़ूबसूरत भाव संजोये उत्कृष्ट कृति ।

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