बाल रचना- गिरी बरफ़ है (चौपाई छंद)

 


देखो चमके दूर शिखर। 

गिरी बरफ़ है भर-भर-भर॥

बढ़ी पहाड़ों पर है सर्दी।

सेना पहने मोटी वर्दी॥


सरहद-सरहद घूम रही है।

माँ धरती को चूम रही है॥

भेड़ ओढ़कर कंबल बैठी।

बकरी घूमे ऐंठी-ऐंठी॥


याक मलंग जा रहा ऊपर।

बरफ़ चूमती है उसके खुर॥

मैदानों में मेरा घर है।

चलती सुर्रा हवा इधर है॥


टोपी मोज़ा पहने स्वेटर।

काँप रहा पूरा घर थर-थर॥

कट-कट-कट-कट दाँत कर रहे।

जब भी हम घर से निकल रहे॥


हवा शूल बन जड़ा रही है।

कँपना पल-पल बढ़ा रही है॥

करना क्या है सोच रहे हम?

आता कोहरा देख रहे हम॥


ऐसे में बस दिखे रज़ाई।

मम्मी ने आवाज़ लगाई॥

अंदर आओ आग जली है।

खाते हम सब मूँगफली हैं॥


जिज्ञासा सिंह


ज्योति की स्थापना में

 अनुभूति पत्रिका में प्रकाशित गीत

ज्योति की स्थापना में 


प्रज्ज्वलित हों उत्सवित हों

रश्मियाँ संसार की।

भूलना न मन कभी,

अभिकल्पना आधार की॥

निष्कलुष होकर हृदय

निज का लगाना प्रार्थना में।

ज्योति की अभ्यर्थना में॥ 


बच गए गर डूबने से,

मध्य सागर में खड़े।

तारिकाएँ तोड़ लीं जो,

आसमाँ से, बिन उड़े॥

समर्पण-सदभाव-श्रद्धा,

डूब जाना भावना में।

ज्योति की अभ्यर्चना में॥


ज्योति में है रम्यता,

चैतन्यता अभिसार दे।

हो प्रवाहित हृदय में,

धारा दे पारावार दे॥ 

आत्म जागृत, प्राण पोषित,

लीनता दे साधना में।

ज्योति की आराधना में॥


जिज्ञासा सिंह

टहनियाँ फूल से भरने लगी हैं.. गीत

 

टहनियाँ फूल से 

भरने लगी हैं


बंजरों की झाड़ काटी

कंटकों की बाड़ छाँटी

मृत पड़ी माटी जगाईं

और कुछ ऐसे जगाईं

मरुधरा विकसित-हरित

खिलने लगी है॥


खुदी का खोदा कुआँ था 

पल रहा जिसमें धुआँ था

नीर था संक्रमित दूषित

कमल-शतदल किया रोपित

हर तरफ़ कलियाँ खिलीं

हँसने लगी हैं॥


था जहाँ स्वामित्व रण का

स्वामिनों के अपहरण का

जाल का घेरा घनत्व

छाँट बोए निरत सत्व

राह की पगडंडियाँ

दिखने लगीं हैं॥


जिज्ञासा सिंह

नारायण-नारायण बोलो बूढ़े मन

 

नारायण-नारायण बोलो बूढ़े मन 

अपना लेखा जोखा तोलो बूढ़े मन 


क्या खोया क्या पाया अब तक 

कहाँ तलक है पहुँची दस्तक

खाकें छानीं फाँकीं धूलें 

छूटी कहाँ यार की बकझक 

कितने पापड़ बेले कितने तोड़े घन 


हिलो-डुलो मत उमर हो गई तेरी

छोड़ो हाटें छोड़ो करनी फेरी

भूलभुलैया की गलियों में 

उमर बिताई कर-कर हेराफेरी

समय साथ चल-चल करता अभिनंदन


थोड़ा हो चैतन्य जागरूक बनो

गुनो धुनो कुछ नया नवेला सुनों

मध्यमार्ग पथ के उपवन की

छाँहें झरती ठंढी-ठंढी चुनों

छोड़ो माया और मोंहों के कानन


जिज्ञासा सिंह


हँस रहा गणतंत्र खुलकर

 

हँस रहा गणतंत्र खुलकर 


आज देखा भोर में वो, 

खिल रहा था क्यारियों में।

फूल-फल से आच्छादित,

अनगिनत फुलवारियों में।

ओढ़ कर धानी चुनर

हर्षित धरा भी साथ थी

क्षितिज कंचन सुरमई

प्रमुदित मुदित मन भास्कर॥


एक दिन मैं देश से अपने,

मिली आकाश में।

उड़ रहा था पंख खोले, 

डूबकर उच्छवास में।

आत्मा उसकी अनोखी

तीन रंगों से सजी थी,

श्वेत केसरिया हरे 

भावों के रस में लिपटकर॥


देश के अद्भुत आलौकिक,

रूप से परिचय हुआ जब।

एकता सद्भाव और,

विश्वास का उद्भव हुआ तब।

मूल्य की अतुलित धरोहर 

सभ्यता सौंदर्य अनुपम,

जगमगाता हर दिशा में 

तिमिर गहरा काटकर॥ 


जिज्ञासा सिंह

पलकों में उर हैं जागे



जाने कितने प्रश्न लिए
घर से निकला वो
प्रश्नों के हल मिले जिधर
जिस ओर चला वो

अवधूतों का डेरा चलता आगे आगे
विधि का जहाँ बसेरा डग जाते हैं भागे
मार्ग नहीं आदम का घर भी न उस ओर
तंद्रा भंग हुई पलकों में उर हैं जागे
कैसी है ये दशा कहाँ जाना है प्राणी
जाने न है अंत कहाँ किस ओर भला हो॥

वही रूप वो ही समरूपक सर्वविदित वो 
सर्वाग्रह सर्वव्याप्त जगत मन में जागृत जो
जगा रहा वह जग को प्रतिपल स्वयं जागकर
मार्ग बनाता जाता है क्षण-क्षण प्रमुदित वो
किरन काटती अवरोधन को बिना कटार
गौण हो चुके रस्तों पर एक दीप जला वो॥

होना है ब्रह्मोत्सव आत्म उद्भव का उद्यम
दीर्घ मंद्र लय तान सजे सुर ताल मृदंगम
अलबेला वो नगर नगर सब जीवित वासी
शून्य रखे उपवास खड़ा अभिनंदन में थम
गहरी होती श्वाँस मधुर उद्गीती धुन सी
अंतरतम में वास वहीं जीवंत कला हो॥

जिज्ञासा सिंह 

ये मृदुल ऋतु का समय है


ये मृदुल ऋतु का समय है

आज देखा द्वार मेरे
एक तरुवर हँस रहा था 
मंजरी के बौर से हर
एक टहनी कस रहा था
भाल पे मोती जड़ा 
जगमग टिकोरों का मुकुट
झूमता धानी धरा
का हृदय है

पंछियों के झुण्ड कलरव
गान करते पंक्तियों में
आवरण विध्वंस करते
नींव भरते भित्तियों में
व्योम एकाकार 
मधुमय मधुर स्मित
इस जहाँ से उस जहाँ तक
एकमय है

मक्खियों ने डंक अपने
नोच डाले स्वयं ही
सर्प लिपटे नेवलों से
बाँह थामे गहमयी
वृष्टि में मकरंद झरते
गुदगुदी कलियों को 
कर-कर गीत गाती
भ्रमर टोली
गुंजमय है

जिज्ञासा सिंह