अकेली हूँ शांत हूँ
एकान्त हूँ
अपनी हूँ बस, अपनी
नितांत अपनी
न कोई स्वप्न है मेरी आँखों में
न बस है, अपनी साँसों पे
सोचती हूँ थोड़ा सुस्ता लूँ
खुद को अपना बना लूँ
अपने में डूब जाऊँ
और इतराऊँ
वरना यहाँ से हिलते ही
उनसे मिलते ही
माँ बन जाऊँगी
पत्नी कहलाऊँगी
बेटी, बहन
तो बन बन
के थक गई थी बहुत पहले
बहू, भाभी,चाची, मासी कोई कुछ भी कह ले
पर मैं हूँ, कहीं क्या ?
ढूँढती रही सदा
करती रही अपनी तलाश
खो दिया होशोहवास
बहुत कुछ बन के
बन ठन के
कई बार सोचा कि मैं यही हूँ
पर शायद इन नामों के अलावा मैं कहीं नहीं हूँ
बार बार खोजती हूँ खुद को
भूल जाती हूँ सुध बुध को
दिखती हूँ कहीं किसी गहरे कूप में
या किसी पुराने संदूक में
जिसके ताले में भी वर्षों पुराना जंक है
ये मेरे नाम पर कैसा कलंक है
जो लगा भी नहीं
जिसकी सजा भी नहीं
सजा का प्रावधान भी नहीं
कोई संविधान भी नहीं
मजमून भी नहीं
कानून भी नहीं
जो मेरी सुने और मुझे, मुझसे मिलवा दे
सारे झंझावातों,नातों से दूर कर
नितांत, एकांत में अपने लिए जीना सिखा दे...
**जिज्ञासा सिंह**
चित्र साभार गूगल
अपनी राह बनाना सबके के लिए आसान नहीं इस दुनिया में
जवाब देंहटाएंकविता जी आपका हार्दिक आभार एवम नमन,सादर शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह ।
हटाएंआपके द्वारा अभिव्यक्त भावनाएं भी सही हैं जिज्ञासा जी तथा कविता जी द्वारा इंगित किया गया यथार्थ भी । अभिनंदन आपका इस भावपूर्ण एवं मर्मस्पर्शी काव्यमय अभिव्यक्ति के लिए ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार व्यक्त करते हुए आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को सादर नमन करती हूं ।
हटाएंवाह, बढ़िया लिखा है आपने।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार एवम् अभिनन्दन करते हुए आपकी प्रशंसा को नमन करती हूं ।
हटाएंस्त्री की मनोदशा का
जवाब देंहटाएंमार्मिक चित्रण
वाकई स्त्री कितना सोचती है
फिर भी उसके अस्तित्व को समझा ही नहीं जाता
बहुत अच्छी रचना
वाह
कविता का मर्म समझ, आपने प्रशंसा की, जिसके लिए आपको मेरा हार्दिक नमन एवम वंदन ।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (21-03-2021) को "फागुन की सौगात" (चर्चा अंक- 4012) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
आदरणीय शास्त्री जी, नमस्कार !
हटाएंअपनी रचना के चयन के लिए आपको मेरा हार्दिक नमन एवम् शुभकामनाएं ।
अकेली हूँ शांत हूँ
जवाब देंहटाएंएकान्त हूँ
अपनी हूँ बस, अपनी
नितांत अपनी
न कोई स्वप्न है मेरी आँखों में
न बस है, अपनी साँसों पे
सोचती हूँ थोड़ा सुस्ता लूँ
खुद को अपना बना लूँ
अपने में डूब जाऊँ
और इतराऊँ
वरना यहाँ से हिलते ही
उनसे मिलते ही
माँ बन जाऊँगी
पत्नी कहलाऊँगी
बेटी, बहन
तो बन बन
के थक गई थी बहुत पहले
बहू, भाभी,चाची, मासी कोई कुछ भी कह ले
पर मैं हूँ, कहीं क्या ?
ढूँढती रही सदा
करती रही अपनी तलाश
खो दिया होशोहवास
बहुत कुछ बन के
बन ठन के
कई बार सोचा कि मैं यही हूँ
पर शायद इन नामों के अलावा मैं कहीं नहीं हूँ
बार बार खोजती हूँ खुद को
भूल जाती हूँ सुध बुध को
दिखती हूँ कहीं किसी गहरे कूप में
या किसी पुराने संदूक में
जिसके ताले में भी वर्षों पुराना जंक है
ये मेरे नाम पर कैसा कलंक है
जो लगा भी नहीं
जिसकी सजा भी नहीं
सजा का प्रावधान भी नहीं
कोई संविधान भी नहीं
मजमून भी नहीं
कानून भी नहीं
जो मेरी सुने और मुझे, मुझसे मिलवा दे
सारे झंझावातों,नातों से दूर कर
नितांत, एकांत में अपने लिए जीना सिखा दे...
पूरी रचना ही बेहद खूबसूरत है , स्त्री की मनोदशा का सुंदर चित्रण, औरों के लिए जीती है सो अपने लिए नही सोचती, अति उत्तम , बधाई हो जिज्ञासा
आदरणीय ज्योति जी,इतनी सुंदर और सार्थक प्रशंसा से अभिभूत हु, आपके स्नेह से निरंतर नव सृजन में रुचि बढ़ रही है,हृदय से आपका आदर करती हूं । आपको मेरा अभिवादन ।
हटाएंयूँ तो स्त्री क्या पुरुष क्या सब ही बंट जाते हैं रिश्ते नातों में । लेकिन एक स्त्री कुछ ज्यादा ही बंटी होती है ।क्यों कि जीवन की भासग दौड़ में वो अपने लिए सुकून के कुछ पल भी नहीं निकाल पाती ।
जवाब देंहटाएंखुद के लिए सोचने का शायद वक़्त ही नहीं होता । उसके द्वारा किया हर कार्य दूसरे के लिए ही होता है ।।लेकिन सोचना चाहिए , कुछ क्षण खुद के लिए भी जी लेने चाहिए ।
आपकी यह रचना यही सब सोचने पर विवश कर रही है । सुंदर सृजन
@@ आप मेरे चाँद से मिल आईं अभी देखा मैंने , शुक्रिया ।
मैं आपके गले में पेंडेंट के रूप में चाँद को देख रही हूँ ।😄😄😄
आदरणीय दीदी,आप लोगो की प्रशंसा, हम जैसे लोगो के लिए बूटी का काम करती है,मन खुशी से अभिभूत हो जाता है,लिखती बचपन से हूं,पर इतना स्नेह आप लोगो से मिलना एक अंदरूनी खुशी देता है,जिसका वर्णन शब्दो में नहीं हो सकता,और पेंडेंट तो ऐसा लग रहा कि आपने छूकर कहा बहुत सुंदर है जिज्ञासा, कहां से लिया और मैं मुस्करा दी ।सादर नमन ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी कविता |हार्दिक बधाई और शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंजयकृष्ण जी आपका बहुत बहुत आभार, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया का हार्दिक स्वागत करती हूं , सादर नमन।
जवाब देंहटाएंसुंदर-सुकोमल भावों को समेटे इस कविता के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई। शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार वीरेन्द्र जी, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन करती हूं ।
हटाएंसुंदर और सार्थक भाव!!!
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार विश्वमोहन जी, आपको मेरा सादर अभिवादन ।
हटाएंजो लगा भी नहीं
जवाब देंहटाएंजिसकी सजा भी नहीं
सजा का प्रावधान भी नहीं
कोई संविधान भी नहीं
मजमून भी नहीं
कानून भी नहीं
जो मेरी सुने और मुझे, मुझसे मिलवा दे
सारे झंझावातों,नातों से दूर कर
नितांत, एकांत में अपने लिए जीना सिखा दे...
आपकी कविता को पढ़ मन कही खो सा गया फिर से खुद की तलाश में
अकेली हूँ शांत हूँ
एकान्त हूँ
अपनी हूँ बस, अपनी
नितांत अपनी
न कोई स्वप्न है मेरी आँखों में
न बस है, अपनी साँसों पे
सोचती हूँ थोड़ा सुस्ता लूँ
खुद को अपना बना लूँ
अपने में डूब जाऊँ
और इतराऊँ
वरना यहाँ से हिलते ही
उनसे मिलते ही
ये दो पल जो खुद के तलाश में गुजरती है उसे खोना
बस जिज्ञासा जी क्या कहूँ आपने बेजुबान कर दिया,सादर नमन इस एक-एक भाव को
बहुत आभार प्रिय सखी कामिनी जी, आपकी प्रशंसा भरी दिल को छूती टिप्पणी अभिभूत कर गई,लोग कुछ भी कहें पर स्त्री का अपना स्वतंत्र अस्तित्व अभी भी बमुश्किल मिलता है,अगर एक प्रतिशत स्वतंत्र भी है तो वो कितने हालातों से गुजरने के बाद । आपकी प्रतिक्रिया को नमन है।
हटाएंवाह बहुत ही सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार अभिलाषा जी, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हृदय से नमन करती हूं ।
हटाएंवाह नारी मन की मार्मिक अभिव्यक्ति जिज्ञासा जी। हार्दिक शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार प्रिय रेणु जी, आपकी स्नेह सिक्त टिप्पणी का आदर करती, सादर नमन ।
हटाएंमार्मिक चित्रण किया है आपने जिज्ञासा जी।
जवाब देंहटाएंबहुत सिलसिलेवार वर्णन किया है आपने अपने को तलाशती नारी का।
अब वस्तु स्थिति बदल चुकी है।
अब नारी भी मुखरित है ।
और सोचें तो पुरुष भी तो ऐसे ही मिलते जुलते सवालों से जूझता होगा।
सस्नेह।
आपकी बात से मैं पूर्णतः सहमत हूं कुसुम जी, स्थिति काफी बदल चुकी है,परंतु मैंने जो अनुभव किया,इस लिहाज़ से आज जो स्त्रियां मुखरित हैं,उनका प्रतिशत बहुत कम है,इसके अलावा, उनकी सफलता का श्रेय भी दूसरे को दिया जाता है, सफल होने पर भी जाने कितने कटाक्ष,व्यंग कर दिए जाते हैं, मैं अपने आसपास देखती हूं कि छोटी जगहों से पढ़ने शहर आई लड़कियां उचित मार्गदर्शन के अभाव में कितने पापड़ बेलती हैं, जिनके मातापिता जब शहर में पढ़ने के लिए शहरों में छोड़ते हैं,तो वो बोरी के झोले में समान पहुंचाते हैं, और कैसे फीस देते होंगे,ईश्वर ही जनता है,अगर सही में सुव्यवस्थित तरीके से कुछ किया जाता या होता तो स्त्री अपने को किसी भी स्थिति में रहते हुए कभी शिकायत न करती ।परंतु अगर पुरुष ऐसे सवालों से जूझता है तो उससे प्रश्न नहीं पूंछे जाते,कटाक्ष नहीं किए जाते,रिश्ते की दुहाई नहीं दी जाती । और वो स्त्री जैसे संवेदनशील नहीं होते इसलिए उन्हें मलाल भी कम होता है,मेरे हिसाब से हम रिश्ते पैदा करते है, अतः कष्ट भी उठाते हैं ।....
हटाएंआपके कोमल स्नेह की हृदय से आभारी हूं, आपकी सुंदर प्रेरणात्मक टिप्पणी का इंतजार रहता है,सदैव स्नेह की अभिलाषा में जिज्ञासा सिंह ।
सुंदर व मार्मिक अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार गगन जी, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन एवम वंदन ।
हटाएंबहुत सुन्दर रचना है जिज्ञासा !
जवाब देंहटाएंलेकिन आजीवन किसी की परछाईं बन कर जीना भी क्या जीना है?
नारी को अपनी इस परछाईं वाली छवि से उबरना है तो उसे ख़ुद सूरज बन कर दमकना होगा !
आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय , आपकी प्रशंसा को हृदय से नमन करती हूं,आपकी बात से मैं सहमत हूं सर,परंतु ये जो परछाई है,वो कई रूप धरे है, जैसे आर्थिक,सामाजिक,पारिवारिक,राजनीतिक, और एक ऐसी परछाईं जिसे हमने स्वयं ओढ़ रखा है,जो हमसे अलग ही नही होती,वह है,किसी का सहारा, जिसपे धीरे धीरे अब कुछ महान नारियों ने काम करना शुरू किया है, जिन्हें मैं शत शत नमन करती हूं, और आप जैसे विज्ञ जनों का साथ होगा तो स्थिति ज़रूर बदलेगी ।इसी आशा में जिज्ञासा सिंह ।
हटाएंबढिया सृजन
जवाब देंहटाएंसीता जी, आपका मेरे ब्लॉग पर हार्दिक स्वागत है, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन है ।सदैव स्नेह बनाए रखें ।
जवाब देंहटाएं*सीता/सरिता
हटाएंआपकी लिखी कोई रचना सोमवार 22 मार्च 2021 को साझा की गई है ,
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
जी,दीदी आपका बहुत बहुत आभार । मैं ज़रूर आऊंगी, आपको मेरा सादर अभिवादन। शुभरात्रि ।
जवाब देंहटाएंजिज्ञासा दी, सारे रिश्ते निभाते निभाते नारी खुद को भूल जाती है। नारी की मनोगाथा को बहुत ही खूबसूरती से व्यक्त किया है आपने।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार प्रिय ज्योति जी,आपकी प्रशंसनीय भावनावों को नमन है ।
हटाएंअपनी खुद की तलाश तो कभी कम नहीं होती... हाँ, स्त्रियों के ऊपर समाजिक जिम्मेदारी इतनी लाद दी जाती है कि वह अपने विषय में सोच ही नहीं पाती है... सुंदर स्त्री भावों को दर्शाती कविता....आभार....
जवाब देंहटाएंजी, आपका बहुत बहुत आभार विकास जी, भावभरी प्रशंसा तथा ब्लोग पर आने के लिए बहुत शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंbahut sundar lekh hai .... prernadayak lekhni
जवाब देंहटाएंबहुत आभार हरीश जी, सादर नमन ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर मार्मिक रचना। मन की भावनाओं को बहुत सच्चाई से अभिव्यक्त किया है । बहुत बहुत शुभ कामनाएं ।
जवाब देंहटाएंआदरणीय आलोक सिन्हा जी, ब्लॉग पर आपकी उपस्थिति कविता को सार्थक बनाती है,कृपया स्नेह बनाए रखें ।सादर अभिवादन ।
जवाब देंहटाएंमार्मिक चित्रण जिज्ञासा जी भाओं की अभिव्यक्ति सराहनीय है।👌👌
जवाब देंहटाएंआदरणीय दीदी, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन करती हूं । आपसे अनुरोध है, कि आप मेरे गीत के ब्लॉग पर जरूर भ्रमण करें। आपको होली के मज़ेदार गीत मिलेंगे और आपको आनंद आएगा ।सादर ।
जवाब देंहटाएंनमस्ते.....
जवाब देंहटाएंआप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की ये रचना लिंक की गयी है......
दिनांक 27 मार्च 2022 को.......
पांच लिंकों का आनंद पर....
आप भी अवश्य पधारें....
सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएं