वो तिराहे पर अनभिज्ञ खड़ी हुईं
रास्ता ढूँढने के जद्दोजहद में पड़ी हुईं
कल जो खट खट की
आवाज़ के साथ चलती थीं,
आज वो भ्रम की डोर से जकड़ी हुईं
ज्यों ही हाथ पकड़ा उनका,
उन्हें घर पहुँचने की हड़बड़ी हुई
मैंने देखा है उन्हें कई बार सजी सँवरी,
रंगीन साड़ी और ग़हनों से जड़ी हुईं
गुलाबी आभा चेहरे की भूलती नहीं मुझको,
झील सी आँखें काजल से भरी हुईं
वो क्या दौर था ये क्या दौर है,
ख़ूबसूरत मलिका बुढ़ापे से घिरी हुईं
उम्र ने छोटी कर दी उनकी वो दुनिया,
जो दुनिया उनकी हथेली पर बड़ी हुई
खोजती हैं मेरी आँखें शाम सहर,
दिख जायँ वो मेरे दरवाज़े पर खड़ी हुईं
मेरी प्रिय अलमस्त पड़ोसन आज दिखीं मुझे,
वृद्धाश्रम के बिस्तर पर पड़ी हुईं
**जिज्ञासा सिंह**
nice post.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार रश्मि जी,सादर नमन ।
हटाएंहृदयस्पर्शी।
जवाब देंहटाएंशिवम जी आपका हार्दिक आभार एवम नमन ।
हटाएंउम्र ने छोटी कर दी उनकी वो दुनिया,
जवाब देंहटाएंजो दुनिया उनकी हथेली पर बड़ी हुई---
बहुत मर्मस्पर्शी रचना है, बहुत गहरे और मन से गूंथे हुए शब्द। मन कुछ पल के लिए ठहर सा गया।
आपका हार्दिक आभार संदीप जी,सादर नमन ।
हटाएंमर्मस्पर्शी रचना है जिज्ञासा जी यह आपकी - कलेजा चाक कर देने वाली ।
जवाब देंहटाएंजितेन्द्र जी,आपका बहुत बहुत आभार ।
हटाएंओह , बहुत मर्मस्पर्शी रचना । बहुत संवेदनशीलता से लिखी है ।अंतिम पंक्ति ने जैसे दिल ही निचोड़ दिया । उफ्फ । यूँ बुढापे के दृश्य डराते हैं ।
जवाब देंहटाएंसच दीदी, वो दृश्य बड़ा ही विहवल करने वाला था, जो महसूस किया, वो डरावना था, मैं तो अभी भी उस पीड़ा में हूं,कई वर्षो बाद भी । आपका बहुत आभार ।
हटाएंमन को दहला देने वाली कहानी कहती है आपकी रचना जिज्ञासा जी | श्रवण कुमार के देश में ----- जीवन में अप्रासंगिक हो रहे बुजुर्गों का सफर वृद्धाश्रम मेंजाकर थामना जीवन की दारुणता का चरम है | अपने योगदान को याद करके थके प्राण और विच्च्लित आत्मा किस वेदना से गुजरती होगी ----- वो अनकहा सत्य कदाचित कोई कलम ना लिख पाए--- | पर बहुत जीवंत लिखा आपने | पढ़कर भावुक हो गयी |
जवाब देंहटाएंप्रिय रेणु जी, आपकी हर बात बिलकुल सत्य है, हमारे समाज में हर तरह के लोग हैं,कुछ लोग बड़े प्रेम से अपने मां बाप की सेवा करते हैं,परंतु कुछ माता पिता दुर्भावना के शिकार हो जाते हैं,आपकी स्नेह सिक्त। प्रतिक्रिया को नमन है ।
हटाएंकृपया थामना--- थमना पढ़ें
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय ।सादर नमन ।
हटाएंआजकल तो ऐसी दर्द भरी कहानी हर किसी से सुनने को मिलती है, माँ बाप हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाते रहते है,बच्चे अनसुना कर के जो करना है करते जाते है , इसी बर्ताव से माता पिता भी संभलते जा रहे है, बेहद शर्मनाक दर्दनाक है ये बातें, संस्कार अच्छे ही मिलते है,मगर सहूलियत देखकर फैसले लिए जाते हैं, मैं अपनी बात इन पंक्तियों के माध्यम से रखती हूँ ----
जवाब देंहटाएंआस लगाकर बालक पोसा
कंचन दूध पिलाया
माता पिता का दोष नहीं है
कर्म लिखा फल पाया।
बहुत ही बढ़िया लिखा है जिज्ञासा , हार्दिक शुभकामनाएं
आदरणीय ज्योति दी,आपकी हर बात पूर्णतया सत्य है, हम अपने इर्दगिर्द ही ऐसे अनेकानेक स्थितियों,परिस्थितियों से गुजरते हैं, जो हमे सोचने को मजबूर करती है ।आपकी आशु पंक्तियां तो अपने आप में ही बहुत कुछ कह रहीं हैं, आपकी स्नेह भरी टिप्पणी को हार्दिक नमन ।
हटाएंजीवन की कड़वी सच्चाई व्यक्त करती सुंदर रचना,जिज्ञासा दी।
जवाब देंहटाएंप्रिय ज्योति जी,आपका बहुत बहुत आभार, सस्नेह जिज्ञासा सिंह ।
हटाएंखोजती हैं मेरी आँखें शाम सहर,
जवाब देंहटाएंदिख जायँ वो मेरे दरवाज़े पर खड़ी हुईं
मेरी प्रिय अलमस्त पड़ोसन आज दिखीं मुझे,
वृद्धाश्रम के बिस्तर पर पड़ी हुईं
कटु यथार्थ बयान करती हृदयस्पर्शी भावाभिव्यक्ति ।
आदरणीय मीना जी, आपकी सुंदर प्रतिक्रिया का स्वागत करती हूं,आपको मेरा सादर नमन एवम वंदन । जिज्ञासा सिंह ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआदरणीय आलोक सिन्हा जी, आपकी प्रशंसनीय एवम स्नेहिल प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन एवम अभिनंदन । ब्लॉग पर आपके निरंतर स्नेह की आभारी हूं, जिज्ञासा सिंह ।
जवाब देंहटाएंबहुत संवेदनशीलता से लिखी मर्मस्पर्शी रचना!
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