बदला बदला सा शहर



ये धुआँ धुआँ सा आसमाँ क्यूँ है
छुप रहे लोग सब यहाँ वहाँ क्यूँ है


जिसके दीए की लौ दूर तलक जाती थी
यूँ अंधेरे में डूबा हुआ वो जहाँ क्यूँ है

सुना था यहाँ कभी रात नहीं होती है
उजाला ढूंढ़ता अपने निशाँ क्यूँ है

खौफ के साए में जी रहे जैसे सब
डरा डरा सा लग रहा हर नौजवाँ क्यूँ है

बैठकर अपनों से जो बतियाते नहीं थे थकते
आज अपनों से दूर भागता कारवाँ क्यूँ है

जिनके गुलशन की महक दूर तलक थी फैली
वो तिनके तिनके में बिखरा सा गुलिस्ताँ क्यूँ है

कोने कोने से आके पंछी वहाँ रहते थे
आज उजड़ा हुआ उनका आशियाँ क्यूँ है

कहीं तो कुछ भी गलत है जरूर हुआ
वरना खामोश सबकी यूँ ज़ुबाँ क्यूँ है

आओ ढूंढे कोई रास्ता सभी मिलके
इस तरह खुद की उलझनों से भागना क्यूँ है
                                                                     
      **जिज्ञासा सिंह**     

47 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 25 अप्रैल 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. आदरणीय दीदी, टिप्पणी में आपका नाम देखकर मन प्रफुल्लित हो गया, आप स्वस्थ हैं,और हाजिर हैं,ये बहुत खुशी की बात है, मेरी रचना के चयन के लिए आपका हार्दिक आभार एवम अभिनंदन । सादर शुभकामनाएं, जिज्ञासा सिंह ।

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  2. आओ ढूंढें कोई रास्ता सभी मिलके, इस तरह ख़ुद की उलझनों से भागना क्यूँ है? ठीक कहा जिज्ञासा जी आपने। बहुत अच्छी रचना है यह। आपने हालात की ही नहीं, इस मुसीबत से बाहर निकलने के लिए सही कदम उठाने की भी बात की है। रास्ता ढूंढने का काम सबका है क्योंकि मुसीबत भी सबके लिए है।

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    1. जितेन्द्र जी आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया हमेशा आशा से भरी मनोबल बढ़ाने वाली होती है,आपका बहुत बहुत आभार ।

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  3. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 25-04-2021) को
    "धुआँ धुआँ सा आसमाँ क्यूँ है" (चर्चा अंक- 4047)
    पर होगी। रविवार की चर्चा का शीर्षक आपकी रचना की पंक्ति ली गई
    है । चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
    धन्यवाद.


    "मीना भारद्वाज"

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    1. आदरणीय मीना जी,आज के माहौल में अपने मन को सक्रिय रखना भी बहुत बड़ी कला है, उस पर आप लोगो का श्रमसाध्य कार्य हमेशा मनोबल ऊंचा करता है,ईश्वर से कामना है सभी स्वस्थ और प्रसन्नचित रहें,मेरी रचना को मान देने के लिए हृदय तल से आपका आभार प्रकट करती हूं, सादर सप्रेम जिज्ञासा सिंह ।

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    2. कृपया शुक्रवार के स्थान पर रविवार पढ़े । धन्यवाद.

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  4. आदरणीया जिज्ञासा जी, कहीं न कहीं भूल हमारी ही है। तरक्की की सीढियां चढ़ते हुए शायद हम आखिरी पादान तक पहुँच चुके हैं, जहाँ से सिर्फ पतन ही संभव है।
    साधुवाद, ऐसी रचना हेतु।

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    1. पुरुषोत्तम जी आपका उद्गार बिलकुल सही है, आज की स्थिति के लिए कहीं न कहीं हम पर भी उत्तरदायित्व बनता है,आखिर मनुष्य हैं हम, आँख मूंदकर भाग नहीं सकते । प्रशंसा के लिए आपका बहुत बहुत आभार ।

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  5. "आओ ढूंढे कोई रास्ता सभी मिलके
    इस तरह खुद की उलझनों से भागना क्यूँ है"

    बस एक मात्र यही विकल्प है -खुद की गलतियां मान उसे सुधार लेना।
    हम शीघ्र-अतिशीघ्र समान्य जीवन में लौटे यही प्रार्थना और यही स्वयं से कोशिश भी ।

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    1. सही कहा आपने प्रिय कामिनी जी, जीवन तो बड़े कठिन दौर से गुजर रहा है,बस किसी भी कीमत पे इससे लड़ने का हौसला बना रहे यही ईश्वर से प्रार्थना है, और कोशिश तो होनी ही चाहिए। आपको मेरा सादर नमन ।

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  6. जिज्ञासा, इस कोरोना-काल में तुमने इस ख़ूबसूरत गज़ल की याद दिला दी -
    सीने में जलन, आँखों में तूफ़ान सा क्यूं है,
    इस शहर में हर शख्स, परेशान सा क्यूं है.

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    1. आदरणीय सर,बिलकुल सही गजल आपने याद दिला दी,आज का माहौल ही कुछ ऐसी ही बातों को याद दिला रहा है,आप स्वस्थ रहें,यही कामना है, मेरा आपको सादर अभिवादन ।

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  7. माना कि गफलत है चमन में
    मगर पत्तियों में हरकत-सी क्यूँ है।
    जल्दी ही होगा अमन गुलिस्तां में
    हवाओं में ऐसी महक क्यूँ है।🙏🙏🙏

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    1. बहुत सुंदर,आशा से भरी पंक्तियाँ..आपको मेरा सादर नमन एवम वंदन ।

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  8. कहीं तो कुछ भी गलत है जरूर हुआ
    वरना खामोश सबकी यूँ ज़ुबाँ क्यूँ है
    समसामयिक संदर्भ में महत्व पूर्ण चिंतन से परिपूर्ण रचना जिज्ञासा जी! हार्दिक शुभकामनाएं!

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    1. बहुत आभार प्रिय सखी,आपकी सुंदर शुभकामनाओं को हृदय से लगा लिया है,सादर सप्रेम जिज्ञासा सिंह ।

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  9. आदरणीया मैम, बहुत ही सुंदर और समसामयिक रचना। सचजीवन में यह सन्नाटा बहुत साल रहा है पर भूल हमारी है तो सुधारना भी हमें ही है। यदि हम सब इस संघर्ष से मिलकर लड़ेंगे तो कोरोना शीघ्र भागेगा। हार्दिक आभार इस सुंदर रचना के लिए व आपको प्रणाम।

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    1. प्रिय अनंता सुंदर प्रतिक्रिया के लिए ढेर सारा प्यार और आशीर्वाद, ये कठिन दौर जल्दी बीत जाए यही भगवान से प्रार्थना है। सादर शुभकामनाएं।

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  10. अपने ब्लॉग पर एक कहानी डाली है पहली बार। मेरा अनुरोध है कृपया आकर पढ़ें व अपना आशीष और मार्गदर्शन दें।

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  11. आओ ढूंढे कोई रास्ता सभी मिलके
    इस तरह खुद की उलझनों से भागना क्यूँ है
    वाह!!!
    कमाल की गजल लिखी है आपने जिज्ञासा जी!समसामयिक हालातों पर...।
    बहुत लाजवाब।

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    1. सुधा जी, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया का तहेदिल से स्वागत करती हूं,सादर शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह ।

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    1. बहुत बहुत आभार शिवम जी, आपकी प्रशंसा को नमन है ।

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  13. बहुत बहुत आभार अभिलाषा जी, आपको मेरा सादर नमन।

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  14. आओ ढूंढे कोई रास्ता सभी मिलके
    इस तरह खुद की उलझनों से भागना क्यूँ है
    बहुत ही सुंदर और समसामयिक रचना जिज्ञासा जी।

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    1. आपका बहुत आभार आदरणीया अनुराधा जी, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन करती हूं ।

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  15. जिज्ञासा दी, सब मिल कर समाधान ढूंढेंगे तो जरूर मिलेगा समाधान। बहुत सुंदर रचना।

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  16. बहुत बहुत आभार ज्योति जी, आपकी सुंदर टिप्पणी को हार्दिक नमन एवम वंदन ।

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  17. बैठकर अपनों से जो बतियाते नहीं थे थकते
    आज अपनों से दूर भागता कारवाँ क्यूँ है

    जिनके गुलशन की महक दूर तलक थी फैली
    वो तिनके तिनके में बिखरा सा गुलिस्ताँ क्यूँ है---बहुत अच्छी रचना और बहुत गहरे संवेदनाएं...।

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    1. संदीप जी, आपका बहुत बहुत आभार,तारीफ के लिए दिल से शुक्रिया ।

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  18. बहुत सुंदर ज‍िज्ञासा जी, आज के संदर्भ में एक गंभीर रचना...हर द‍िल की कहानी बताती रचना.. वाह सुना था यहाँ कभी रात नहीं होती है
    उजाला ढूंढ़ता अपने निशाँ क्यूँ है

    खौफ के साए में जी रहे जैसे सब
    डरा डरा सा लग रहा हर नौजवाँ क्यूँ है..अद्भुत

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    1. बहुत बहुत आभार अलकनंदा जी, आपकी सुंदर टिप्पणी को हृदय तल से नमन करती हूं,सादर ।

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  19. ये धुआँ धुआँ सा आसमाँ क्यूँ है
    छुप रहे लोग सब यहाँ वहाँ क्यूँ है

    वर्तमान हालातों का सजीव चित्रण, पर हर रात की सुबह होती है

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    1. आदरणीय दीदी,आपकी उत्साहित करती प्रशंसा को हार्दिक नमन एवम वंदन ।

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  20. ओंकार जी, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया के लिए आपका बहुत बहुत आभार एवम नमन ।

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  21. धुआँ धुआँ सा आसमान यों है
    काट दिए वृक्ष फिर ये प्रश्न क्यों है ?

    खामोश है जुबां इसलिए कि जानते हैं सब और
    सोचते हैं कि पाँव कुल्हाड़ी पर मारा क्यों है ?

    जी हाँ अब हालत ये है कि कुल्हाड़ी पैर पर नहीं पैर ही कुल्हाड़ी पर दे मारा है ....

    बहुत खूबसूरती से किये हैं सारे प्रश्न ...शानदार ग़ज़ल .

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    1. आपके प्रश्न बिलकुल लाजिमी है, खुद ही हम इंसान इन परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार हैं और अभी भी कोई कदम नहीं उठाए जा रहे, समझ नही आता क्या होगा?
      आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन एवम वंदन ।

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  22. बहुत सुंदर !
    आपने डूब कर लिखा है जैसे लेखनी ज़ुबान दार होगई।
    बहुत उम्दा प्रश्न और हर दोनो है आपकी ग़ज़ल में।
    साधुवाद।

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  23. आपका बहुत आभार कुसुम जी, आपकी प्रशंसा को दिल से लगा लिया है,और ईश्वर से प्रार्थना है कि सभी लोग स्वस्थ रहें और सक्रिय जीवन जिएं । आपको सादर शुभकामनाएं ।

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  24. बहुत ही बारीकी से उकेरा है आज को । बहुत ही बढ़िया ।

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  25. बहुत बहुत आभार अमृता जी , आपकी प्रशंसा को हार्दिक नमन करती हूं ।

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