बादलों के झुरमुट से झाँकते हो भानु तुम,
ऊर्जा का जग में संचार किए जाते हो
काले भूरे बादलों की चीर देते छाती यूँ
किरणों की रंगीन प्रभा दिए जाते हो
व्योम के विशाल वक्ष करते तुम राज और
नित्य प्रति मेरा श्रृंगार किए जाते हो
उपवन औ कानन भी राह तकें, मुड़ मुड़ के
कलियों और पुष्पों के बहार बन जाते हो
मानव का जीवन है, तुमसे ही अच्छादित
भोजन औ भाजन का उपहार दिए जाते हो
सुन लो भास्कर अब मेरी भी इतनी बात
निशदिन ही मेरे मेहमान बन आते हो
दुनिया में आके मेरे लेते हो थाह मेरी
सुनते न दर्द मेरा चुप्प भाग जाते हो
अंधियारे से डर के भागते हो रवि, जिस
कैसे है लड़ना मुझे ? उससे समझाते हो
रुको जरा ठहरो तुम मेरे घर एक रात
जीती हूँ मैं कैसे ? नैन देख जाते हो
ऐसी क्या मजबूरी, ऐसा क्या अनुशासन ?
मुझको अकेला छोड़ रोज चले जाते हो
ग्रहों औ नक्षत्रों में श्रेष्ठ पे विराजमान
सृष्टि के कंठ का हार कहलाते हो
आज तुम्हें बाँधूंगी हिरदय की उस डोरी
जिसकी हर श्वाँस तार तार किए जाते हो
कौन यहाँ सुनता है ? मेरे मन की व्यथा
किसके सहारे तुम छोड़ मुझे जाते हो
मेरे प्रियवर ! ओ मेरे तुम मित्र सखा !
क्यों ऐसी दुविधा में डाल मुझे जाते हो
कहते जग के प्राणी मेरी ही संतति हैं
इनकी मोह माया में बाँध मुझे जाते हो
रोज रोज छलनी करे मेरा ही आँचल जो
उनकी ही रक्षा का वचन लिए जाते हो
आखिर ये मानव हैं, दुनिया बदलने वाले
इन्हें कैसे रहना है क्यों न बतलाते हो ?
कब ये समझ पाएँगे,पृथ्वी है मातृ रूप
पृथ्वी के शोषण से जीवन गँवाते हो
**जिज्ञासा सिंह**
बहुत सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार शिवम जी,सादर नमन।
हटाएंप्रिय भानु को भी तो थोड़ा आराम चाहिए। बस उतने ही समय के लिए तो वह छोड़ जाता है, अपनी भानुप्रिया को! बहुत मोहक मानवीयकरण!!!
जवाब देंहटाएंआपकी तथ्यपरक प्रशंसा के लिए आपका हार्दिक आभार विश्वम्पहन की,सादर अभिवादन ।
हटाएंसूरज जाता तो रोज है, लेकिन आता भी तो रोज है न!लेकिन उतनी देर का भी विरह इतनी तीव्रता से महसूस होना...बहुत सुंदर रचना, जिज्ञासा दी।
जवाब देंहटाएंआपकी प्रतिक्रिया हमेशा मनोबल बढ़ाने का काम करती है, आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय ज्योति जी ।सादर नमन ।
हटाएंसूरज और पृथ्वी के वार्तालाप से विरहवेदना की बड़ी प्यारी अभिव्यक्ति ,साथ ही साथ पृथ्वी माँ का दर्द भी उजागर कर दिया आपने,सुंदर मर्मस्पर्शी रचना ,
जवाब देंहटाएंयहां मेरा थोड़ा सा अलग दृष्टिकोण " यदि सूरज हर पल पृथ्वी के साथ रहा तो उसके तपिस से पृथ्वी का दामन नहीं जल जायेगा " क्या सह पाएगी पृथ्वी उसके अविराम तपिस को....पृथ्वी को ठंढक देने के लिए ही तो वो हर रात उससे दूर जाता है...और फिर प्रतीक्षा का आनंद भी तो अनूठा होता है....
लाज़बाब सृजन करती है आप जिज्ञासा जी,सादर नमन आपको
बहुत ही सारगर्भित तथ्य उजागर करती आपकी स्वर्णिम टिप्पणी को सादर नमन । कामिनी जी जब भोर में सूर्य का सुंदर दृश्य मन को मोह जाता है,उस समय मुझे सूर्य की तपिश का ख्याल ही नहीं आया और जब आया तो रचना अपना पूर्णरूप ले चुकी थी । आपके सुंदर सार्थक दृष्टिकोण से सहमत हूं,आपको मेरा सादर नमन प्रिय सखी ।
हटाएंधराकादिनकरसे बहुत मार्मिक संवाद जिज्ञासा जी। यदि कहूं तो धरा अपनी ही संततियो। के आघात सहते सहते इतनी के क्षीण और जर्जर हो चुकी कि इसका अस्तित्व मिटने के कगार पर है। सच है धरती को माता कहने वाले इन्सान ने उसके तन -मन को रौंद कर भीषण तबाही और गहरे घाव दिए हैं। सूर्य को सखा मानकर मन की वेदना कहती धरा नहीं जानती की उसे नारी रूप मिला है तो सूर्य पौरुषता के अहंकार में डूबा ब्रहाण्ड का सर्वशक्तिमान स्वामी। वह कैसे उसकी पीड़ा समझ पाएगा। सदियों की प्रतीक्षा जारी है। कब उसकी वेदना का शमन करने कोई सखा आयेगा।
जवाब देंहटाएंवाह ! आपकी इतनी सुंदर व्याख्यात्मक प्रतिक्रिया कविता को साकार रूप दे गई,बहुत बहुत आभार प्रिय रेणु जी,सादर नैन ।
हटाएंनैन*नमन
हटाएंग्रहों औ नक्षत्रों में श्रेष्ठ पे विराजमान
जवाब देंहटाएंसृष्टि के कंठ का हार कहलाते हो
आज तुम्हें बाँधूंगी हिरदय की उस डोरी
जिसकी हर श्वाँस तार तार किए जाते हो
👌👌👌👌👌🙏🌷🎈🌷💐💐🙂
☺️☺️🙏🙏❣️❣️
हटाएं👌👌🙏🙏🙏
हटाएं
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरती से पृथ्वी ने सूर्य से आपके शब्दों के माध्यम से अपनी वेदना कही ।
व्यक्तिगत रूप से जहाँ तक इस रचना की कवयित्री को दिखा वही विरह की वेदना का कारण बना ।।अन्यथा तो बेचारे भानु महाराज तो एक जगह ही खड़े धरती को टकटकी लगाए देखते रहते और धरा अलग अलग ऐंगल से खुद के सौंदर्य को घूम घूम कर दिखाती रहती ।
है धरा --
ये जग तुम्हारा
इसीलिए तो
हर पल करता रहता
ऊर्जा का संचार
इस संसार में ।
कभी कभी
आती है बाधा
बादलों के रूप में
फिर भी
खेलता हुआ लुका छिपी
पहुँचता हूँ
तुम्हारे पास
अपनी किरणों के साथ
देखो अवनि,
अब तुम यूँ
मिथ्या लाँछन न लगाओ
मैं तो
जाता ही नहीं कहीं भी
तुम ही हो जो
घूम कर बदल लेती हो
अपना चेहरा ,
मैं ही हतप्रभ सा
देखता रह जाता हूँ
तुम्हारा हर रूप ।
बस कहना चाहता हूँ
तुमसे दिल की एक बात
जिनके निर्मम प्रयासों से
तुम हो रही हो
जीर्ण - विदीर्ण
खत्म हो रही है
तुम्हारी सहनशक्ति
आज भी तुम
उनके बारे में सोच
हो रही हो परेशान ,
जब कि
तुम्हारी ये संतति
अहंकार में डूबी
दिखाती रहती है
अपनी आन ।
आज भी ये भोग रही है
भयंकर यंत्रणा ,
न जाने क्या कुछ
पड़ेगा इनको सहना ,
और मैं और तुम
बने मूक दर्शक सुनते रहेंगे
इनका विलाप ,
कितना ही प्रकृति
सिखाए इनको ,
कुछ नहीं समझेंगे
अपने आप ।
बस - अब न कहना
विरह की बात
हम तो रहते हर पल साथ
जुड़ा रहता हूँ तुमसे
और देता रहता अपना ताप ।
धरा की बात तुमने कही तो कोई तो हो न जो सूरज की बात भी करे । अब क्या लिखा बाद में देखूँगी । जो मन में आया लिखती चली गयी ।
ये सूरज का संवाद है । इसी रूप में लेना ।
तुम्हारी भावनाओं को दिल से समझा है । तभी ये कुछ लिख पाई । गलत ठहराने के ख्याल नहीं है ।।
खूबसूरत रचना ।
आदरणीय दीदी,इतनी तन्मयता से आपने मेरी कविता पढ़ी और तत्पश्चात आपके सुंदर मनोभाव कविता के रूप में व्यक्त हुए ये मेरे लिए आप जैसी विदुषी का सर्वोत्तम उपहार और पुरस्कार है,क्या सुंदर दृश्य है कि हम में से कोई सूर्य,कोई चंद्र,कोई पृथ्वी,कोई जल,कोई अग्नि,कोई पेड़ पौधों से अपने को जुड़ा हुआ महसूस करता है, मुझे तो इतना हर्ष हो रहा है, कि बहुत से लोग प्रकृति से खिलवाड़ कर रहे हैं,पर बहुत से लोग इस सृष्टि के कण कण से प्रेम करते हैं ।आपकी इतनी आत्मीय प्रतिक्रिया मेरे मन को अभिभूत कर गई,सदैव इतनी उत्कृष्ट और विशेष टिप्पणी का इंतजार रहेगा,सादर नमन ।.. जिज्ञासा सिंह ।
हटाएंवाह जिज्ञासा !
जवाब देंहटाएंधरती-सूर्य संवाद सुन्दर है किन्तु कविता में छुपा हुआ सन्देश सब से महत्वपूर्ण है.
धरती के लाल उसका ही अनवरत दोहन कर रहे हैं !
इस आत्मघाती क्रिया-कलाप का परिणाम शीघ्र ही उनके सामने आ जाएगा.
आदरणीय सर, आपकी सार्थक प्रतिक्रिया का तहेदिल से स्वागत करती हूं, आपकी टिप्पणी का सदैव इंतजार रहता है,सादर अभिवादन ।
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०५ -०६-२०२१) को 'बादल !! तुम आते रहना'(चर्चा अंक-४०८७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
मेरी रचना को चर्चा अंक में शामिल करने के लिए आपका हार्दिक आभार प्रिय अनीता जी,बिलकुल आऊंगी,सादर शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह ।
हटाएंबेहतरीन रचना सखी, सुंदर संदेश प्रद
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार अभिलाषा जी, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन ।
हटाएंपूरी दुनिया का शृंगार तो सूरज से ही. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति. बधाई.
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार जेन्नी शबनम जी, आपकी सुंदर प्रतिक्रिया को सादर नमन ।
हटाएंअच्छी रचना
जवाब देंहटाएंओंकार जी आपका बहुत बहुत आभार एवम सादर नमन ।
जवाब देंहटाएंवाह! अद्भुत!!
जवाब देंहटाएंरोज क्षीज रही धरा की वेदना का प्रतीकात्मक शैली में शानदार मानवीयकरण,सूरज से शिकवा शिकायत और दर्द बहुत हृदय स्पर्शी है, जिज्ञासा जी , पर्यावरण दिवस पर आपकी ये रचना एक संदेश दे रही है मानव को ...
पर बेकार है मानव के हाथ सूर्य तक अभी नहीं पहुंच पाये नहीं तो कल को सूरज भी शिकायत करता घूम रहा होता।
अप्रतिम सृजन बधाई।
सुंदर संवेदनाएं उकेरी है आपने ।
सस्नेह।
कुसुम जी, आपकी प्रशंसनीय टिप्पणी हमेशा कविता को सार्थक बना देती है, आपका बहुत बहुत आभार वयक्त करती हूं,सादर नमन ।
हटाएंकौन यहाँ सुनता है ? मेरे मन की व्यथा
जवाब देंहटाएंकिसके सहारे तुम छोड़ मुझे जाते हो
मेरे प्रियवर ! ओ मेरे तुम मित्र सखा !
क्यों ऐसी दुविधा में डाल मुझे जाते हो संवाद
धरा का भानु से बहुत ही हृदयस्पर्शी एवं भावपूर्ण... जैसे अपनी बिगड़ैल संतानों से परेशान धरा माँ उनके पिता भानु से उनकी शिकायत कर उन्हें दण्डित कर सुधारने की उम्मीद लिये बोल रही है
आखिर ये मानव हैं, दुनिया बदलने वाले
इन्हें कैसे रहना है क्यों न बतलाते हो ?
वाह!!!
बहुत ही लाजवाब सृजन।
सुधा जी,आपकी व्याख्या करती सुंदर टिप्पणी कविता को विस्तार दे गई,आपको मेरा सादर नमन एवम वंदन ।
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह भावों व शब्दों का सौंदर्य बिखेरती रचना मुग्ध करती है।
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार शांतनु जी,ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी का सदैव इंतजार रहता है । सादर नमन ।
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत रचना जिज्ञासा जी।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय अनुराधा जी, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन करती हूं ।
जवाब देंहटाएं