जंगली जानवरों का शहर आगमन

भेड़िए का रूप धरकर काल आया
काल ने पहले मुझे कुछ यूँ चिढ़ाया

देख ले मैं आ गया हूँ, स्वयं चलकर
भागना मत ऐ मनुज ! तू मुझसे डरकर
तूने ही तो आके मुझको था बुलाया

मैने तुझसे कब कहा था दो निमंत्रण
था बंटा मेरा तुम्हारा मार्ग कण कण
फिर भी तू मेरी जमीं को रौंद आया

मित्र मैं कैसे न आऊँ द्वार तेरे
जब लगाता तू मेरे हज्जार फेरे
बन के तू घुसपैठिया सब लूट लाया 

क्षीण वन की संपदा तुमने ही की है
खोखली है माँद वृक्षों की कमी है
होके मैं मजबूर तेरे शहर आया

अब डरो या देखकर मुझको मरो तुम
मुझसे बचने की मशक्कत सौ करो तुम
डाकुओं को कौन किसने कब बचाया

जानवर मैं, तू है मानव इस धरा पे
है बड़ा मुझसे भी दानव वसुधरा पे
अब मैं जाके हूँ तुझे कुछ समझ पाया
भेड़िए का रूप.....
    
   **जिज्ञासा सिंह**

30 टिप्‍पणियां:

  1. शहर में भेड़िये आज थोड़ी आए हैं !
    मुल्क की सियासत की बागडोर तो न जाने कब से इनके हाथों में है!

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    1. आदरणीय सर,मेरी कविता के भाव दूसरे हैं, कृपया सियासत से नहीं आम आदमी से जोड़िए, त्वरित प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय सर 🙏🙏💐💐

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  2. यहॉं मुल्क की नहीं शहर की बात हो रही है । मनुष्य ने जो वनों को खत्म किया है उसके विषय में कहा है ।।
    गहन और विचारणीय प्रस्तुति।

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  3. कविता के मर्म को समझने के लिए आपका असंख्य आभार आदरणीय दीदी,आपकी टिप्पणी हमेशा नव सृजन का मार्ग प्रशस्त करती है,आपका हार्दिक नमन ।

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  4. जो डालेंगे बैलेट में हम, प्रतिनिधि वैसे निकलेंगें।
    मन में चाह काट लेने की, साँप निकलकर डस लेंगे।

    बड़ी सुन्दर पंक्तियाँ।

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    1. सुंदर आशु पंक्तियां । आपका बहुत बहुत आभार अनीता जी ।सादर नमन ।

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  5. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(२८-०८-२०२१) को
    'तुम दुर्वा की मुलायम सी उम्मीद लिख देना'(चर्चा अंक-४१७०)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  6. अनीता जी, नमस्कार !
    मेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए आपका हार्दिकआभार एवम अभिनंदन । शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह ।

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  7. प्रकृति के अनावश्यक दोहन से उपजे असंतुलन को दर्शाती गहन रचना । अति सुन्दर सृजन जिज्ञासा जी।

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    1. बहुत बहुत आभार मीना जी, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन एवम ।

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  8. न जाने कौन हैं भेड़िया कौन है काल,
    सब इन्सानो के ही चेहरे हैं।
    कोई घुसपैठियां तो कोई है पहरेदार ।

    शब्दों को बहुत अच्छा पिरोया है । अति सुन्दर सार्थक रचना।

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    1. ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है आदरणीय,आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को नमन एवम वंदन करती हूं ।सादर ।

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  9. प्रकृति ने सृष्टि के हर जीव को जीवन देने के साथ उसकी सीमाएं भी तय की,जिसका उल्लंघन करना व्यवस्था का अतिक्रमण है जिससे उत्पन्न असंंतुलन का दंड समूचे जगत के जीवों को भुगतना पड़ रहा।
    अत्यंत सारगर्भित संदेशात्मक सृजन प्रिय जिज्ञासा जी।
    सस्नेह।

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    1. आपकी सार्थक प्रतिक्रिया ने कविता को सार्थक कर दिया,बहुत आभार श्वेता जी ।

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  10. क्षीण वन की संपदा तुमने ही की है
    खोखली है माँद वृक्षों की कमी है
    होके मैं मजबूर तेरे शहर आया

    अब डरो या देखकर मुझको मरो तुम
    मुझसे बचने की मशक्कत सौ करो तुम
    डाकुओं को कौन किसने कब बचाया

    वाह!!!!
    कमाल की अभिव्यक्ति जिज्ञासा जी!
    एकदम सटीक... जब इंसान घुसपैठिया बन जानवरों के वन संम्पदा को लील रहा है तो काल या महाकाल बनकर भेडिये और अन्य जानवर अब शहर आयेंगे ही
    लाजवाब सृजन हेतु बहुत बहुत बधाई आपको।

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  11. आपकी सुंदर, समीक्षात्मक प्रशंसा ने कविता के भाव को सार्थक बना दिया, बहुत बहुत आभार सुधा जी । सादर नमन एवम वंदन आपका ।

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  12. सही बात है.. शहर बढ़ते बढ़ते जंगलों को लील गए हैं तो बेचारे भेड़िये भी कहाँ जाये.. उन्हें तो आना ही है वहाँ जहाँ कभी उनके घर हुआ करते थे..

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  13. सार्थक सारगर्भित प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार एवम अभिनंदन विकास जी ।

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  14. सटीक अभिव्यक्ति! सही कहा आपने इन नरभक्षी भेड़ियों को जन्म देने वाला मानव ही है अपने स्वार्थ में अँधा होकर अपने ही नाश का बीज मानव स्वयं बो रहा है ।
    बहुत सुंदर जिज्ञासा जी।

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  15. बहुत बहुत आभार कुसुम जी, आपको मेरा सादर नमन।

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  16. अत्यंत सारगर्भित संदेशात्मक अभिव्यक्ति, जिज्ञासा दी।

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  17. प्रेरक रचना...। आवश्यक है अब इन्हीं गहनतम विचारों की...।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका । रचना का मर्म समझने ले लिए ।

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  18. जैसी करनी वैसी भरनी । हमें तो भुगतना पड़ रहा है जो वो काफी नहीं है क्या । प्रभावी चिंतन ।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका । आपकी प्रतिक्रिया ने कविता को सार्थक कर दिया ।

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  19. पर्यावरण की दुर्दशा पर सशक्त प्रहार।

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  20. बहुत बहुत आभार आपका । आपकी प्रतिक्रिया ने कविता को सार्थक कर दिया ।

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