उस नदी की चाह में मैं रेत पर चलती रही ।
जो कभी माँ के जमाने में यहाँ बहती रही ।।
जाने कितनी ही कहानी माँ ने मुझको है सुनाई ।
हर कहानी में नदी ही प्रेरणा बनती रही ।।
है नदी की धार पर माँ ने चलाई नाव जो ।
बैठ कर उस नाव में मैं यात्रा करती रही ।।
जितनी भी नावें मिली मुझको सफर के मार्ग में ।
हर पथिक से बात सरिता झूम कर करती रही ।।
कौन खुशियाँ साथ लाया, और दुःख में कौन आया ।
अपनी लहरों से सभी की आत्मा छूती रही ।।
जुड़ गई मैं माँ से ज्यादा उस नदी के मर्म से ।
जिसके तट पे बैठ के माँ केश तक गुंथती रही ।।
रेत पर अब भी निशाँ दिखते हैं तेरे ऐ नदी ।
क्यों भला सब छोड़कर तू यूँ बनी चलती रही ।।
**जिज्ञासा सिंह**
रेत पर अब भी निशाँ दिखते हैं तेरे ऐ नदी ।
जवाब देंहटाएंक्यों भला सब छोड़कर तू यूँ बनी चलती रही ।।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति,जिज्ञासा दी।
ज्योति जी आपका बहुत बहुत आभार,सदैव आपकी टिप्पणी मनोबल बढ़ा देती है ।आपको मेरा सादर नमन ।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (29-09-2021) को चर्चा मंच "ये ज़रूरी तो नहीं" (चर्चा अंक-4202) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि
आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर
चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और
अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आदरणीय सर आपको मेरा सादर अभिवादन !
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच में मेरी रचना को शामिल कर आपने एक सुखद अनुभूति दी है,जिसका आपको तहेदिल से शुक्रिया अदा करती हूं।सादर नमन एव शुभाकामनाएं।
रेत पर अब भी निशाँ दिखते हैं तेरे ऐ नदी ।
जवाब देंहटाएंक्यों भला सब छोड़कर तू यूँ बनी चलती रही.. मन को छू गई आपकी रचना.. हम क्यों भूल गए।
सादर
बहुत बहुत आभार अनीता जी, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन एवम वंदन ।
हटाएंवाह बहुत ही सुंदर सृजन जितनी तारीफ की जाए कम है आदरणीय मैम
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार प्रिय मनीषा, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया का स्वागत है
हटाएंजाने कितनी ही कहानी माँ ने मुझको है सुनाई ।
जवाब देंहटाएंहर कहानी में नदी ही प्रेरणा बनती रही ।।
है नदी की धार पर माँ ने चलाई नाव जो ।
बैठ कर उस नाव में मैं यात्रा करती रही ।।
बहुत ही सुंदर भावों से सजी रचना,नदी का सुखना अर्थात अतीत का सूखते जाना,लाजबाब
बहुत बहुत आभार कामिनी जी, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन एवम वंदन ।
हटाएंरेत पर अब भी निशाँ दिखते हैं तेरे ऐ नदी ।
जवाब देंहटाएंक्यों भला सब छोड़कर तू यूँ बनी चलती रही ।
--------------------------
वाह, बहुत खूब। बधाईयाँ।
बहुत बहुत आभार वीरेन्द्र जी, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन एवम वंदन।
हटाएंजितनी भी नावें मिली मुझको सफर के मार्ग में ।
जवाब देंहटाएंहर पथिक से बात सरिता झूम कर करती रही ।।
हालात बहुत भयावह होने वाले हैं, हम केवल रेत की नदी देखेंगे...पानी मुश्किल हो जाएगा। बहुत अच्छी रचना है आपकी।
जवाब देंहटाएंजी,सही कहा आपने संदीप जी । आपका बहुत बहुत आभार, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन एवम वंदन ।
हटाएंबहुत मार्मिक !
जवाब देंहटाएंजो प्रकृति का निर्मम दोहन करते हैं, वही आज देश के रखवाले बने हुए हैं.
आखिर सूखती नदी कब तक सिर्फ़ अपने आंसुओं के बल पर खुद को जिंदा रख सकती थी.
बहुत बहुत आभार आदरणीय सर, आपकी प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन एवम वंदन।
जवाब देंहटाएंरेत पर अब भी ....पर्यावरण के प्रति चिंता-चिंतन से परिपूर्ण सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका ।
जवाब देंहटाएं