अरी ! तू अबला कैसे ?


अरी ! तू अबला कैसे ?


चीर मेघ और भेद गगन को अंतरिक्ष तक पहुँची,

अतल सिंधु की गहराई से चुन लाई तू मोती ।

मरुभूमि में जलधारा ला,हरियाली फैलायी,

बिन पैरों के चढ़ी विश्व की सबसे ऊँची छोटी ।।


तू सृष्टि को धारण करती, सृष्टि धारित तुझसे 

अरी ! तू अबला कैसे ?


याद करो आज़ादी की तुम चलीं मशालें लेकर,

घर बारा सब भूल गयीं लाखों वधुएँ बालाएँ ।

देश की ख़ातिर डटी रही नभ में जल में औ थल में,

आजादी के बाद भी प्रहरी बन थामीं सीमाएं ।।


अस्त्र शस्त्र तू धारण करती दुर्गा देवी जैसे ।

अरी तू अबला कैसे ? 


घर डेहरी में क़ैद रही सर्वस्व न्यौछावर करके,

पीड़ा झेली औ झेली सदियों तुमने गुमनामी ।।

छोड़ो बीती बातों को, अब देखो आगे बढ़के, 

बीत गईं वो बेला, जब तुमने सही ग़ुलामी । 


कोई निकल नहीं पाता अब, आँख दिखाकर तुझसे ।

अरी तू अबला कैसे ? 


हर रिश्ते की डोर संभाले, सब की कर्म विधाता,  

पहली शिक्षक तू कहलाई, और इस जग की जननी ।

घर बाहर का रखे संतुलन, बन के सुघड़ प्रशासक,  

अब तो तेरे पंख उड़ रहे, रही न केवल गृहनी ।।


झुकती दुनिया तेरे आगे, तुझको डर फिर किससे ?

अरी तू अबला कैसे ?

सखी तू अबला कैसे ? 


**जिज्ञासा सिंह** 

33 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. विश्वमोहन जी,आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया रचना को सार्थक कर देती है, आपको मेरा सादर नमन एवम वंदन ।

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 8 सितंबर 2021 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
    !

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    1. आपका बहुत बहुत धन्यवाद पम्मी जी,रचना के चयन के लिए आपका हार्दिक अभिनंदन करती हूं,सादर शुभाकामनाएं।

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  3. अब तो जागो ! विश्व की आधी आबादी हो तुम

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  4. बहुत शुक्रिया आपका गगन जी, मनोबल बढ़ाती आपकी टिप्पणी अभिभूत कर गई। आपको मेरा नमन एवम वंदन ।

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  5. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (08-09-2021) को चर्चा मंच      "भौंहें वक्र-कमान न कर"     (चर्चा अंक-4181)  पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।--
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'   

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    1. आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय शास्त्री जी,रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए आपका हार्दिक नमन एवम , शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह ।

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  6. प्रकृति कहाँ कब अबला थी?
    सुन्दर, सशक्त अभिव्यक्ति।

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    1. बहुत बहुत आभार प्रवीण जी, आपकी प्रशंसा को मेरा सादर नमन।

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  7. अलख जगाने भर की ही देरी है सबला होने के लिए । हुंकारी सृजन ।

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  8. सही कहा जिज्ञासा जी आज हर क्षेत्र में आगे बढ़ गई है नारी आज भी ये अबला का आवरण क्यों, आपने सटीक व्याख्या की है
    सार्थक चिंतन परक सृजन।

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  9. आपकी सार्थक टिप्पणी ने कविता के मर्म को सार्थक कर दिया,बहुत आभारी हूँ।

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  10. बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना । शुभ कामनाएं ।

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  11. बहुत खूबसूरत और सशक्त सृजन जिज्ञासा जी !

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  12. बहुत सुन्दर !
    हनुमान जी की तरह भारतीय नारी को भी कोई जामवंत जैसा उत्प्रेरक चाहिए जो कि उसे बता सके कि उस में बड़े से बड़ा कार्य करने की अपार क्षमता है.

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  13. जी सही कहा आपने । आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन ।

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  14. झुकती दुनिया तेरे आगे, तुझको डर फिर किससे ?

    अरी तू अबला कैसे ?

    सखी तू अबला कैसे ?
    👏👏👏👏👏

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  15. प्रशंसनीय कविता रची है आपने जिज्ञासा जी। अभिनन्दन।

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    1. जितेन्द्र जी आपका बहुत बहुत आभार । आपको मेरा सादर नमन ।

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  16. तू सृष्टि को धारण करती, सृष्टि धारित तुझसे

    अरी ! तू अबला कैसे ? एक धीरगंभीर तरीके से उत्‍साह बढ़ाती रचना, वाह क्‍या खूब ल‍िखा है आपने ज‍िज्ञासा जी

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    1. मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार अलकनंदा जी, आपको मेरा सादर नमन ।

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  17. बहुत सुंदर रचना, जिज्ञासा जी.. महिला अबला नहीं है... वह चाहे तो कुछ भी कर सकती है.... यह समझने की जरूरत है सभी को.... जागने की जरूरत है...

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  18. ब्लॉग पर आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया मनोबल बढ़ा गई ।बहुत आभार आपका विकास जी ।

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  19. मनोबल को बढ़ाती हुई बहुत ही बेहतरीन और उम्दा रचना.....

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  20. सच कहा है ... नारी शक्ति है और हर बार उसने साबित किया है ... घर हो बाहर हो ...
    हर किसी का मनोबल आपकी सार्थक रचना कुछ बढ़ा रही है ...

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  21. बहुत बहुत आभार दिगम्बर जी, आपको मेरा सादर नमन ।

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  22. उम्मीद करते हैं आप अच्छे होंगे

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