मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा,
तेरा उपवन खूब संवारा ।
हर दर्द अकेले सहता जाऊँ,
पीड़ा से कभी नहीं हारा ।।
मैं कानन में खिल जाऊँ ।
आँगन की शोभा बढ़ाऊँ ।।
मैं खिलता रहा हूँ काँटों संग ।
कभी लाल कभी बासंती रंग ।।
जग जाता मुझ पर वारा..
मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा..
कोई समझ न पाए मेरी पीड़ा ।
मैं कैसे धरूँ मन धीरा ।।
जब कंटक मुझको डसते हैं ।
मेरे रोम रोम में छिदते हैं ।
दुःख सहके रूप संवारा..
मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा..
कोई माला बनाए कोई लड़ियाँ ।
कोई गुच्छ सजाए कोई कलियाँ ।।
मैं मंदिर में सज जाता जब ।
फिर भी मैं नहीं इतराता तब ।।
जब देवों की बन जाऊँ माला..
मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा..
एक दिन तो जाना सभी को ।
है मुरझाना मुझ भी को ।।
फिर क्यों न किसी का बन जाऊँ ।
वीर फौजी के शीश चढ़ जाऊँ ।।
जिसने देश पे सब कुछ वारा..
मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा..
**जिज्ञासा सिंह**
वाह! अप्रतिम अभिव्यक्ति!!! बधाई और आभार!!!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका आदरणीय 🙏💐
हटाएंवाह !
जवाब देंहटाएंमाखनलाल चतुर्वेदी जी की अमर कविता - 'एक पुष्प की अभिलाषा' से प्रेरित कविता !
बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय 🙏💐
हटाएंवाह सुंदर! चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं याद आ गई।
जवाब देंहटाएंमोहक सृजन जिज्ञासा जी ।
बहुत-बहुत आभार कुसुम जी । आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया का नमन और वंदन ।
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१८-१२ -२०२१) को
'नवजागरण'(चर्चा अंक-४२८२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
चर्चा मंच में रचना के चयन के लिए बहुत-बहुत आभार अनीता जी । आपको और चर्चा मंच को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ।
हटाएंवाह जिज्ञासा जी, कमाल कर दित्ता तुसी,
जवाब देंहटाएंएक दिन तो जाना सभी को ।
है मुरझाना मुझ भी को ।।
फिर क्यों न किसी का बन जाऊँ ।
वीर फौजी के शीश चढ़ जाऊँ ।। वाSSSSSSह
आपकी सारगर्भित और सार्थक प्रतिक्रिया का हार्दिक स्वागत है अलकनंदा जी, आप को मेरा नमन और वंदन ।
हटाएं'एक फूल की चाह' की याद आ गयी आपकी कविता पढ़कर, सुंदर भावों से सजी रचना!
जवाब देंहटाएंआदरणीय दीदी आप का बहुत-बहुत आभार ।आपकी प्रतिक्रिया का बहुत अभिनंदन ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंएक फूल के विभिन्न आयाम बखूबी कलम से उतारे हैं आपने ...
जवाब देंहटाएंसजीव कर दिया पुष्प को जैसे ...
बहुत-बहुत आभार आपका दिगंबर जी । आपकी प्रशंसा को नमन और बंदन ।
हटाएंपुष्प की अभिलाषा अत्यंत सुंदर सारगर्भित सृजन जिज्ञासा जी।
जवाब देंहटाएंलयात्मक प्रवाह से परिपूर्ण सृजन।
सस्नेह।
बहुत-बहुत आभार श्वेता जी । आपकी टिप्पणी का ब्लॉक पर हार्दिक स्वागत है, आप को मेरा नमन ।
हटाएंएक दिन तो जाना सभी को ।
जवाब देंहटाएंहै मुरझाना मुझ भी को ।।
फिर क्यों न किसी का बन जाऊँ ।
वीर फौजी के शीश चढ़ जाऊँ ।।
जिसने देश पे सब कुछ वारा..
मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा..
पुष्प की अभिलाषा बयां करती बहुत ही उम्दा रचना!
आपने कहा कि पुष्प की पीड़ा कोई नहीं समझता पर आप तो समझ भी रहीं हैं और महसूस भी कर रहीं हैं और शब्दों के माध्यम से बयां भी...
बहुत-बहुत आभार प्रिय मनीषा । सुंदर सारगर्भित टिप्पणी के लिए तुम्हारा बहुत-बहुत अभिनंदन है ।
हटाएंसुंदर सृजन, जिज्ञासा दी।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार ज्योति जी । आप को मेरा नमन और बंदन ।
जवाब देंहटाएंएक दिन तो जाना सभी को ।
जवाब देंहटाएंहै मुरझाना मुझ भी को ।।
फिर क्यों न किसी का बन जाऊँ ।
वीर फौजी के शीश चढ़ जाऊँ ।।
जिसने देश पे सब कुछ वारा..
मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा..
बहुत ही लाजवाब सृजन
सुन्दर मोहक एवं लयबद्ध
वाह!!!
पुष्प के मन की समस्त अभिलाषाओं को दर्शाती सुन्दर प्रस्तुति प्रिय जिज्ञासा जी। कंटकों के दंश से बिंधा पुष्प भी परहित के चिन्तन में रत है। उसकी अंतिम अभिलाषय माखनलाल चतुर्वेदी जी की कालजयी रचना का स्मरण कराती है। बहुत बहुत बधाई इस मनमोहक प्रस्तुति के लिए।
जवाब देंहटाएंकोई समझ न पाए मेरी पीड़ा ।
जवाब देंहटाएंमैं कैसे धरूँ मन धीरा ।।
जब कंटक मुझको डसते हैं ।
मेरे रोम रोम में छिदते हैं ।
दुःख सहके रूप संवारा..
मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा..