मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा


मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा, 
तेरा उपवन खूब संवारा ।
हर दर्द अकेले सहता जाऊँ, 
पीड़ा से कभी नहीं हारा ।।

मैं कानन में खिल जाऊँ ।
आँगन की शोभा बढ़ाऊँ ।।
मैं खिलता रहा हूँ काँटों संग ।
कभी लाल कभी बासंती रंग ।।
 जग जाता मुझ पर वारा..
 मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा..

कोई समझ न पाए मेरी पीड़ा ।
मैं कैसे धरूँ मन धीरा ।।
जब कंटक मुझको डसते हैं ।
मेरे रोम रोम में छिदते हैं ।
 दुःख सहके रूप संवारा.. 
मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा..

कोई माला बनाए कोई लड़ियाँ ।
कोई गुच्छ सजाए कोई कलियाँ ।।
मैं मंदिर में सज जाता जब ।
फिर भी मैं नहीं इतराता तब ।।
जब देवों की बन जाऊँ माला.. 
मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा..

एक दिन तो जाना सभी को ।
है मुरझाना मुझ भी को ।।
फिर क्यों न किसी का बन जाऊँ ।  
वीर फौजी के शीश चढ़ जाऊँ ।।
जिसने देश पे सब कुछ वारा.. 
मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा..

**जिज्ञासा सिंह**

24 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! अप्रतिम अभिव्यक्ति!!! बधाई और आभार!!!

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह !
    माखनलाल चतुर्वेदी जी की अमर कविता - 'एक पुष्प की अभिलाषा' से प्रेरित कविता !

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह सुंदर! चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं याद आ गई।
    मोहक सृजन जिज्ञासा जी ‌।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत-बहुत आभार कुसुम जी । आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया का नमन और वंदन ।

      हटाएं
  4. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१८-१२ -२०२१) को
    'नवजागरण'(चर्चा अंक-४२८२)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. चर्चा मंच में रचना के चयन के लिए बहुत-बहुत आभार अनीता जी । आपको और चर्चा मंच को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ।

      हटाएं
  5. वाह ज‍िज्ञासा जी, कमाल कर द‍ित्‍ता तुसी,
    एक दिन तो जाना सभी को ।
    है मुरझाना मुझ भी को ।।
    फिर क्यों न किसी का बन जाऊँ ।
    वीर फौजी के शीश चढ़ जाऊँ ।। वाSSSSSSह

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपकी सारगर्भित और सार्थक प्रतिक्रिया का हार्दिक स्वागत है अलकनंदा जी, आप को मेरा नमन और वंदन ।

      हटाएं
  6. 'एक फूल की चाह' की याद आ गयी आपकी कविता पढ़कर, सुंदर भावों से सजी रचना!

    जवाब देंहटाएं
  7. आदरणीय दीदी आप का बहुत-बहुत आभार ।आपकी प्रतिक्रिया का बहुत अभिनंदन ।

    जवाब देंहटाएं
  8. एक फूल के विभिन्न आयाम बखूबी कलम से उतारे हैं आपने ...
    सजीव कर दिया पुष्प को जैसे ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत-बहुत आभार आपका दिगंबर जी । आपकी प्रशंसा को नमन और बंदन ।

      हटाएं
  9. पुष्प की अभिलाषा अत्यंत सुंदर सारगर्भित सृजन जिज्ञासा जी।
    लयात्मक प्रवाह से परिपूर्ण सृजन।
    सस्नेह।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत-बहुत आभार श्वेता जी । आपकी टिप्पणी का ब्लॉक पर हार्दिक स्वागत है, आप को मेरा नमन ।

      हटाएं
  10. एक दिन तो जाना सभी को ।
    है मुरझाना मुझ भी को ।।
    फिर क्यों न किसी का बन जाऊँ ।
    वीर फौजी के शीश चढ़ जाऊँ ।।
    जिसने देश पे सब कुछ वारा..
    मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा..
    पुष्प की अभिलाषा बयां करती बहुत ही उम्दा रचना!
    आपने कहा कि पुष्प की पीड़ा कोई नहीं समझता पर आप तो समझ भी रहीं हैं और महसूस भी कर रहीं हैं और शब्दों के माध्यम से बयां भी...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत-बहुत आभार प्रिय मनीषा । सुंदर सारगर्भित टिप्पणी के लिए तुम्हारा बहुत-बहुत अभिनंदन है ।

      हटाएं
  11. बहुत-बहुत आभार ज्योति जी । आप को मेरा नमन और बंदन ।

    जवाब देंहटाएं
  12. एक दिन तो जाना सभी को ।
    है मुरझाना मुझ भी को ।।
    फिर क्यों न किसी का बन जाऊँ ।
    वीर फौजी के शीश चढ़ जाऊँ ।।
    जिसने देश पे सब कुछ वारा..
    मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा..
    बहुत ही लाजवाब सृजन
    सुन्दर मोहक एवं लयबद्ध
    वाह!!!

    जवाब देंहटाएं
  13. पुष्प के मन की समस्त अभिलाषाओं को दर्शाती सुन्दर प्रस्तुति प्रिय जिज्ञासा जी। कंटकों के दंश से बिंधा पुष्प भी परहित के चिन्तन में रत है। उसकी अंतिम अभिलाषय माखनलाल चतुर्वेदी जी की कालजयी रचना का स्मरण कराती है। बहुत बहुत बधाई इस मनमोहक प्रस्तुति के लिए।

    जवाब देंहटाएं
  14. कोई समझ न पाए मेरी पीड़ा ।
    मैं कैसे धरूँ मन धीरा ।।
    जब कंटक मुझको डसते हैं ।
    मेरे रोम रोम में छिदते हैं ।
    दुःख सहके रूप संवारा..
    मैं पुष्प बड़ा ही न्यारा..

    जवाब देंहटाएं