वाणी तेरे कितने रूप

 

वाणी तेरे कितने रूप 

अंतर्मन का भेद  खोले

छाँवकभी है धूप 


अकड़ खड़ी हो,पड़े मुलायम

शांत,क्षुब्ध हो जाए 

कब किसको बखिया बन सिल दे

कब तुरपन खुल जाए 

सिल बट्टे सी पड़ी रहे

फटके बनकर सूप 


भेद कौन समझा मयूर का 

आज तलक वन में ?

भोर भए जब टेर पुकारे

बस जाए मन में 

उदर गरल से भरा हुआ

भोजन विषधर अनुरूप 


अरी भाग्या मौन बड़ा ही

मौक़े का हथियार 

सत्य सदा प्रतिपादन कर

फिर जाके ले प्रतिकार 

जीवन बिन संघर्षों के हो 

जाता जटिल कुरूप 


**जिज्ञासा सिंह**

25 टिप्‍पणियां:

  1. वाह जिज्ञासा ! जीवन की सुन्दर और यथार्थवादी व्याख्या !

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    1. आपके अवलोकन से सृजन सार्थक हो गया । बहुत आभार आपका आदरणीय।

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  2. 'कब किसको बखिया बन सिल दे, कब तुरपन खुल जाए' तथा 'जीवन बिन संघर्षों के हो जाता जटिल कुरूप' - ऐसी पंक्तियां मन में संजोकर रखने योग्य होती हैं। सार्थक काव्य-सृजन हेतु अभिनन्दन आपका जिज्ञासा जी।

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    1. आपके अवलोकन से सृजन सार्थक हो गया । बहुत आभार आपका आदरणीय

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  3. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 26 अगस्त 2022 को 'आज महिला समानता दिवस है' (चर्चा अंक 4533) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

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  4. चर्चा मंच में रचना को शामिल करने के लिए आपका हार्दिक आभार और अभिनंदन।

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  5. वाणी और मौन के बीच, दृश्यों, संवादों और स्थितियों
    का कितना सुंदर चित्रण
    बहुत अच्छा और सुंदर गीत

    बधाई

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    1. सारगर्भित टिप्पणी के लिए आपका हार्दिक आभार और अभिनंदन ज्योति जी । आपको मेरा नमन ।

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  6. वाह! लोकभाषा और मुहावरों से अलंकृत सुंदर रचना

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    1. सारगर्भित टिप्पणी के लिए आपका हार्दिक आभार और अभिनंदन आदरणीय दीदी। आपको मेरा नमन ।

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  7. वाह ! क्या कहने जिज्ञासा जी कुछ ही पंक्तियों में आपने जीवन दर्शन समेट लिया ।
    बहुत सुंदर सृजन
    व्यंजनाएं तो कमाल है।
    सस्नेह साधुवाद।

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    1. सारगर्भित टिप्पणी के लिए आपका हार्दिक आभार और अभिनंदन कुसुम जी । आपको मेरा नमन ।

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  8. वाह! गज़ब कहा जिज्ञासा जी।
    बहुत सुंदर।

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  9. जीवनदर्शन करवाती बहुत सुंदर रचना, जिज्ञासा दी।

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  10. वाणी और मौन की अभिव्यक्ति व्यक्त करती सुंदर रचना।

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