भ्रम का झूला

 

सुखद भ्रमों का झूला टूटा।

पेंगों ने रह-रह कर लूटा॥


लटक रहा रेशम डोरी पे,

झूला था मन के आँगन में।

झूल रहा था रोम-रोम मेरा,

वो बाँधे निज आलिंगन में।

मैं झूली कुछ ऐसे झूली

भूल गई अपनी काया भी,

खुलती जाती डोर स्वयं से

बिखरा जाता बूटा-बूटा॥


झूले की शाखें-शाखों में,

कुसुम सुरंगी खिले हुए थे।

देखा नैनों से अपने ही,

भौंरे घुलकर मिले हुए थे।

चूस-चूस मकरंदों को वे

मुझमें विस्मय भरते जाते, 

हिस्से में उतना मैं पाई

जो उनके अधरों से छूटा॥


टूटा झूला गिरा धरा पर,

करता है अब चित अवचिंतन।

उस झूले पर क्यों झूली मैं,

जो न बना मेरा अवलंबन।

था निर्दृष्टि भाव वो पूरित

जानें क्यों बनकर मैं संगी,

झूले के स्वप्नों संग सोई

जागी तो निकला सब झूठा॥


जिज्ञासा सिंह

22 टिप्‍पणियां:

  1. जिज्ञासा, भ्रम में ही सही, सपनों में ही सही, शुक्र मनाओ कि तुम्हारे अच्छे दिन तो आए.

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  2. जी हार्दिक आभार आपका। आपको मेरा सादर अभिवादन।

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  3. जगत मिथ्या ब्रह्म सत्यं। बहुत प्यारी रचना।

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  4. आपकी ये वाली रचना तो अमर यानि कालजयी होने वाली है .. शायद ... 😃😃😃
    मज़ाक नहीं, 'सीरियसली' कह रहे हैं, क्यों कि आपने महसूस किया होगा कि वर्षों पहले रचे गये सूफ़ी कलाम आज भी, आज की युवा पीढ़ी गुनगुनाती है, जिन्हें फिल्मों में धड़ल्ले से उपयोग / प्रयोग किये गये होते हैं।
    बस .. फ़र्क होता है कि सूफ़ी लोग अपने कलाम में "पिया या सजन" अपने "मौला" के लिए लिखते थे, पर फिल्मों में "पिया या सजन" किसी "प्रेमी" के लिए सम्बोधित किया जाता है .. शायद ...
    लब्बोलुआब ये है कि जिन रचनाओं को अलग-अलग नज़रों से अलग-अलग व्याख्यान के साथ नवाज़ा जाए, उनकी उम्र बढ़ जाती है .. शायद ...
    ठीक बचपन में पढ़ी गयी वो सात लोगों द्वारा किसी हाथी को अलग-अलग तरीके से परिभाषित करने के जैसा .. शायद ...
    अब आपकी इस रचना की मंशा और विषय-आलम्बन तो आप ही जानें, पर अलग-अलग दृष्टिकोण वाली दृष्टियों के दृष्टिपात होने आरम्भ हो गये हैं .. शायद ...
    चलते-चलते आपकी इस रचना के लिए यशोदा दी/जी की भाषा में .. साधुवाद !!! .. बस यूँ ही ...

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  5. मन में भ्रम पाल कर शायद थोड़ी देर सुख का अनुभव महसूस हो लेकिन यथार्थ के धरातल पर सब छलावा ही लगता है । गहन भाव लिए बेहतरीन रचना ।

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  6. वाह! प्रिय जिज्ञासा सुन्दर भाव लिए ,शानदार सृजन।

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  7. वाह!
    भावप्रवण सुगढ़ रचना जिसे जितनी बार पढ़ा नए अर्थ मिले.
    बधाई.

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  8. सपने तो टूटने के लिए ही होते हैं वरना कोई सोता हुआ ही रह जाएगा

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  9. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" मंगलवार 27 जून 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा धन्यवाद!

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  10. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" मंगलवार 27 जून 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा धन्यवाद!

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  11. सुन्दर भावात्मक रचना

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  12. उस झूले पर क्यों झूली मैं,
    जो न बना मेरा अवलंबन।///
    बहुत ही भावपूर्ण और मार्मिक प्रस्तुति प्रिय जिज्ञासा।झूले के बहाने जीवन के मिथ्या अवलम्बन के गुमान को उकेरती जानदार और शानदार रचना।जब ये भ्रम के स्वपन टूटते हैं तो बहुत देर हो चुकी होती है।तन मन को भूल कर सजाये गये ये सपने जब टूटते हैं तो बहुत पीड़ा देते हैं।पर सृजनशीलता के लिए ये ठोकर शायद विधि का विधान है।एक सधी रचना के लिए बधाई और शुभकामनाएं 🌹


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  13. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (29-06-2023) को    "रब के नेक उसूल"  (चर्चा अंक 4670)  पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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  14. उस झूले पर क्यों झूली मैं,

    जो न बना मेरा अवलंबन।

    था निर्दृष्टि भाव वो पूरित

    जानें क्यों बनकर मैं संगी,

    झूले के स्वप्नों संग सोई

    जागी तो निकला सब झूठा॥
    बहुत ही हृदयस्पर्शी रचना सखी !
    इसीलिए संगी जो भी हो अवलंबन सिर्फ और सिर्फ उस निराकार ही होतो ना छूटता है ना टूटता है...बाकी सब मिथ्या है।
    लाजवाब सृजन हेतु बधाई आपको ।

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  15. आपका यह गीत निस्संदेह श्रेष्ठ है, प्रशंसनीय है. जीवन के इस सत्य से हम में से बहुतों का साक्षात्कार होता है. तथापि स्वप्नों का अपना मूल्य है जिज्ञासा जी. स्मरण रखिए कि -

    माना सपने कभी न पूरी करते आशा
    पर मानस में पीर बावरी बो जाते हैं
    जिसमें सुख के परिजात स्वर्णिम खिलते हैं
    दुख के आखर धुल-धुल निर्मल हो जाते हैं

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  16. जिंदगी के सत्य से रूबरू कराती है यह रचना ... बहुत खूब ...

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