वो मेरे बचपन का आँगन


खंडहर बन झड़ रहा है


नेह की ईंटें जड़ा वो,

सौ बरस से है खड़ा जो।

त्याग तप औ साध्य श्रम,

की ही मिसालें दे रहा जो।

वो मेरे बाबा का मस्तक,

और पिता का धड़ रहा है।

हाँ मेरे बचपन का आँगन,

खंडहर बन झड़ रहा है॥


कूँजते नन्हें विहग औ,

चहकतीं किलकारियाँ।

खेलते सिकड़ी व कंचे,

साथ में फुलवारियाँ।

उँगलियों को पकड़ जो

सरपट चली थी लेखनी,

ढूँढ कर मासूम मन के 

भाव को मन पढ़ रहा है॥


दर दीवारों से निकल जो,

गुम्बदों में जा लगे।

धूल के वे पाँव अब तो,

चाशनी में हैं पगे।

जो पगे एक बार तो फिर,

देखते न मुड़ कभी

इस नई तृष्णा का आँगन

फूलकर खिल बढ़ रहा है॥


जिज्ञासा सिंह

28 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना शुकवार 02 जून 2023 को साझा की गई है ,

    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    संगीता स्वरूप

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  2. रचना को पांच लिंकों में शामिल करने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय दीदी।

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  3. बहुत ख़ूब जिज्ञासा !
    लेकिन चाहे मकान हो, चाहे इंसान हो, कभी न कभी उसे जर्जर तो होना ही है

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  4. बचपन की स्मृतियों में डूबी नायाब भावाभिव्यक्ति ॥

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  5. वाह ! बचपन का आँगन और वर्तमान की मजबूरियाँ, दोनों को बेहद ख़ूबसूरती से व्यक्त किया है आपने जिज्ञासा जी!

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    1. आपकी टिप्पणी मनोबल बढ़ा जाती है, आपका आभार दीदी।

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  6. सुंदर पंक्तियों के लिए आपको बधाई।

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  7. वो मेरे बाबा का मस्तक,

    और पिता का धड़ रहा है।

    हाँ मेरे बचपन का आँगन,

    खंडहर बन झड़ रहा है॥
    सच में बचपन के आँगन आज लावारिस से टूट बिखर रहे हैं गाँवो में...
    मधुरस्मृतियाँ को संजोती लाजवाब भावाभिव्यक्ति ।
    वाह!!!!

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  8. बचपन के आँगन से जाने कितनी ही यादें जुडी होती है, जो नज़र पड़ते ही जैसे आँखों के सामने आकर खड़ी बतियाने लगती है। .
    बहुत अच्छी रचना

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  9. पुरखों की विरासत से मुँह मोड़ शहरों और विदेश को पलायन करती पीढ़ी के फलस्वरुप बचपन के आँगन का जीर्ण-शीर्ण
    स्वरुप संवेदनशील मन विशेषकर बेटियों को बहुत पीड़ा पहुंचाता है।कमाल की अभिव्यक्ति प्रिय जिज्ञासा जो मन को दहला गयी।काश घरौंदों को छोड़ उडकर परदेश जाने वाले पखेरू अपने पूर्वजों की आत्मा के सपन्दन की अनुभूति कर पाते इस खण्डहर होते घर में।☹😔

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    1. ये समीक्षात्मक प्रतिक्रिया लेखन को सार्थक कर गई। ये समीक्षा ही तो ब्लॉग की संजीवनी है, लिखने में रुचि रहती है, नहीं तो सूनापन सालता है, स्नेह और अपनेपन की लालसा ब्लॉग पर ले ही आती है, आती रहा करें। आपकी गुलाबी तस्वीर मन हर्षित कर देती है। आभार प्रिय सखी।

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  10. नेह की ईंटें जड़ा वो,
    सौ बरस से है खड़ा जो।
    त्याग तप औ साध्य श्रम,
    की ही मिसालें दे रहा जो।
    वो मेरे बाबा का मस्तक,
    और पिता का धड़ रहा है।
    हाँ मेरे बचपन का आँगन,
    खंडहर बन झड़ रहा है॥///_
    आह सी निकल गई ये पंक्तियाँ पढ़कर 😔

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  11. मैंने अभी पढ़ी फिर से, मन द्रवित हो गया।😔😔

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  12. नेह की ईंटें जड़ा वो,
    सौ बरस से है खड़ा जो।
    त्याग तप औ साध्य श्रम,
    की ही मिसालें दे रहा जो।
    वो मेरे बाबा का मस्तक,
    और पिता का धड़ रहा है।
    हाँ मेरे बचपन का आँगन,
    खंडहर बन झड़ रहा है॥,,,,,,बहुत सुंदर रचना जी हाँ सच है हर कोई अपने आंगन को शायद नहीं भूलता

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  13. आपकी टिप्पणी से लेखन को संबल मिलेगा, हार्दिक आभार आपका

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  14. बचपन की स्मृतियों में डूबी शानदार प्रस्तुति।

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