शालीनता का कड़वा घूँट


उनकी वही कड़वी बात 
फिर आत्मसात 
कर गई मैं 
जो मुझे तोड़ने की कोशिश कर रही है 
पर उन बातों से 
ऐसे ख़यालातों से 
मेरा अपना आकाश बहुत बड़ा है 
जिससे मेरा अस्तित्व जुड़ा है 
वो है तो मैं हूँ 
वरना क्या कहूँ 
समझने वाले कहते हैं मुझसे
कि जब भी कुछ अनसुलझे 
प्रश्न हों 
या प्रश्न उठ रहे हों 
तुम्हारे मनुष्य होने पर 
उन भ्रांतियों को ढोने पर 
जो मैंने पीढ़ियों ढोयी हैं 
खुद अपने लिए भी तो बोयी हैं 
नागफनी की अमर बेल 
ये नहीं है कोई खेल 
इसे मैंने अस्तित्व के दांव पर 
पलकों की छाँव पर 
दिया उगने 
और ज़हर उगलने 
वाले तलाश करते रहे मुझमें 
मेरी ही कमी, उन्हें आग उगलने 
का मौक़ा दे गई 
मेरी शालीनता ही कटघरे में खड़ी हो गई 
निजी जीवन और सार्वजनिक 
दैहिक, दैविक, भौतिक,
सब मेरे पास था 
पर कहीं कुछ ज़रा उदास था 
उदासी से बचने की होड़ में 
जोड़तोड़ में
जीवन गुज़ारा 
पर वो बेचारा 
मात खा गया 
और उसी बात पर आ गया 
कि मैं हूँ क्या ?
मेरे लिए है, ही नहीं ये दुनिया
ये मेरे लिए आघात है 
सहनशक्ति पर प्रतिघात है 
सोचा जीवन मूल्यों की आहुति दे दूँ 
 छवि बनाने की शक्ति ले लूँ 
और मुखौटे का लबादा ओढ़कर 
सच झूठ जोड़कर 
उन्हें अपना बना लूँ 
या फिर जड़ों में सत्यता की खाद डालूँ 
और उन्हें फलदार वृक्ष बनने को मजबूर करूँ 
या फिर इस दोगले समाज के आगे जी हुज़ूर,जी हुज़ूर करूँ 
इस यक्ष प्रश्न के हल की तलाश है 
मन कुछ थोड़ा सा उदास है ...

**जिज्ञासा सिंह**

31 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन अभिव्यक्ति। बिलकुल जब तक हल नही मिलता है तो मन उदास ही रहता है।

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    1. बहुत आभार शिवम जी,आपकी त्वरित टिप्पणी नव सृजन के लिए उत्साह भर्ती है, आपको मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ।

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  2. मन के आकाश को बड़ा रखना ही बहुत बड़ी बात है ।।उदासियाँ छँट ही जाएंगी एक न एक दिन ।

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    1. आपकी सुंदर सकारात्मक प्रतिक्रिया मन में ऊर्जा का संचार कर गई,आपको मेरा सादर नमन ।

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  3. इस यक्ष प्रश्न का हल तो आपके पास ही है जिज्ञासा जी, उसे तलाशने की ज़रूरत नहीं। झूठ और मुखौटे वांछनीय नहीं, दोगले समाज के आगे जी हुज़ूरी करना भी समुचित नहीं; वांछित तो जीवन-मूल्य ही हैं, उनकी आहुति न दीजिए, कड़वी बातों से न टूटिए, आपकी शालीनता अनमोल है जिसे कटघरे में खड़ा करने वाले आपकी तवज्जो के हक़दार नहीं, उन्हें अपना बनाकर क्या हासिल है। जीवन के विविध पक्षों की जड़ों में सच की खाद डालिए और उन्हें फलदार वृक्ष बनने दीजिए।

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    1. जितेन्द्र जी, आपकी व्याख्यात्मक और सकारात्मक प्रतिक्रिया मन को बहुत ही सुंदर और सार्थक लगी, आपके स्नेह को हार्दिक नमन एवम वंदन,आपको मेरा सादर अभिवादन ।

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  4. क्या कहूँ इस समाज का और इस तरह की सोच का। पुरुष समाज खुश हो या नारी समाज दुखी! पर सामंजस्य का अभाव अवश्य झलकता है।
    यदि एक गाड़ी को चलना है तो उस गाडी के प्रमुख अंग को ज्यादा घिसना ही पडेगा। मगर एक दूसरे के बिना किसी का भी अस्तित्व कहाँ भला!
    साधुवाद आदरणीया जिज्ञासा जी।

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    1. जी,सही कहा आपने पुरषोत्तम जी, आपकी आत्मीय प्रतिक्रिया को सादर नमन ।सादर शुभकामनाएं ।

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  5. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  6. प्रिय जिज्ञासा जी , सर्वगुण होते हुए भी दोयम स्तर का जीवन जीना नारी जीवन का औसत सत्य है | नारी ने कई मुखौटे पहनकर समाज , परिवार को जोड़ने की असफल या असफल कोशिशें की है | शालीनता के रूप में संस्कारों का सबसे ज्यादा निर्वहन उसी ने किया है जिस पर कुठाराघात होता है तो स्वाभिमान का आहत होना तय है | नारी मन के मार्मिक संवाद के रूप में लिखी गयी इस रचना के लिए आपको आभार और बधाई |

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    1. प्रिय सखी रेणु जी, आपकी आत्मीय टिप्पणी की कायल हूं, और अभिभूत भी,आपके स्नेह की छत्रछाया की क्या कहें,शब्द नहीं,सादर नमन ।

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  7. आपकी लिखी कोई रचना  बुधवार , 17 मई  2021 को साझा की गई है ,
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।संगीता स्वरूप 

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  8. आदरणीय दीदी,प्रणाम !
    मेरी रचना को "पांच लिंकों का आनन्द" में शामिल करने के लिए आपका हार्दिक आभार,सदैव आपका स्नेह बना रहे,यही ईश्वर से प्रार्थना है,सादर शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह..

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  9. दोगले समाज की जी हुजूरी करने से कहीं अच्छा धारा के विपरीत चलकर संघर्ष के साथ मंजिल की ओर बढ़ना है।

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    1. बहुत बहुत आभार यशवंत जी,आपको मेरा सादर नमन ।

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  10. दैहिक, दैविक, भौतिक,
    सब मेरे पास था
    पर कहीं कुछ ज़रा उदास था
    इस उदासी की दवा
    स्वयं हम ही हैं
    यादो मे ही सिमट कर रह जाते है
    सादर

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  11. आदरणीय दीदी,आपकी सुंदर टिप्पणी मन को छू गई,अपना स्नेह देती रहें,इसी आशा में जिज्ञासा सिंह..

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  12. ईश्वर उसके ही कंधे पर बोझ डालता तो जो उसे उठाने के शक्ति रखता है और उसे ही सहनशक्ति देता है जिसे वह उसके योग्य पाता है। घुप अँधियारा के बाद ही सूरज उगता है

    बहुत सही

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  13. बहुत सुंदर सकारात्मक और ऊर्जावान टिप्पणी के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद कविता जी, आपको मेरा सादर नमन ।

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  14. वाह!जिज्ञासा जी ,नारी मन की संवेदना की सुंदर प्रस्तुति ।

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    1. बहुत बहुत आभार शुभा जी,आपकी सुंदर प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन करती हूं ।

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  15. बहुत सुंदर सराहनीय रचना

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    1. भारती जी आपका बहुत बहुत आभार, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन ।

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  16. उत्तर
    1. आदरणीय आलोक सिन्हा जी आपकी प्रशंसा भरी टिप्पणी का तहेदिल से स्वागत करती हूं ।

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  17. सोचा जीवन मूल्यों की आहुति दे दूँ
    छवि बनाने की शक्ति ले लूँ
    और मुखौटे का लबादा ओढ़कर
    सच झूठ जोड़कर
    उन्हें अपना बना लूँ
    या फिर जड़ों में सत्यता की खाद डालूँ
    और उन्हें फलदार वृक्ष बनने को मजबूर करूँ
    या फिर इस दोगले समाज के आगे जी हुज़ूर,जी हुज़ूर करूँ
    अपने हिस्से के आकाश की विशालता को समझने वाले अपने जीवन मूल्यों की आहुति कैसे दे सकते हैं
    बहुत ही सुन्दर चिन्तनपरक भावपूर्ण एवं लाजवाब सृजन।

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  18. बहुत आभार प्रिय सुधा जी,आपकी प्रशंसनीय आत्मीय प्रतिक्रिया से अभिभूत हूं,आपको मेरी हार्दिक शुभकामनाएं एवम नमन ।

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  19. समाज की विडंबनायें इतनी हैं की इंसान इनसे अगर लड़ने बैठ जाये तो हार ही मान ले. फ़िर भी इन अनुभवों से सीख ले कर आगे बढ़ा जा सकता है. हार मानने के लिए आपके सैंकड़ों वजहें हो सकती हैं पर गिर कर उठने के लिए एक उम्मीद ही काफी है. जिंदादिली यही तो है।

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  20. प्रिय भावना जी,आपकी समाज को लेकर की गई यथार्थपूर्ण सुंदर टिप्पणी को नमन एवम वंदन करती है ।

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