बाँसुरी बाँस की

बाँसुरी, बाँस की  

बार बार बदलती है अपना रूप


हथौड़ियों की चोट सह,खोखला कर देती है स्वयं को 

ढलती साँसों के अनुरूप 


फिर जन्म लेती है एक मधुर तान

कानों में रस घोलते हुए


जीवन में भर देती है सुन्दर गान

अधरों से गुजरते हुए


बह जाता है झर कर अहम और क्रोध

बाँसुरी के धुन के संग


बाँस की बाँसुरी रूखी सूखी सी

दे देती है जीवन को मधुर रंग


       **जिज्ञासा सिंह**

24 टिप्‍पणियां:

  1. जिज्ञासा जी सबसे पहली बहुत बहुत बधाई व ह्रदय से अनेकानेक शुभ कामनाएं पूर्ण स्वस्थ होकर लौटने के लिए |भगवन करें आप हमेशा ऐसे ही अपने ब्लॉग पर मिलती रहें , ऐसे ही निरंतर निर्बाध रूप से लिखती रहें | हथौड़ियों की चोट सह,खोखला कर देती है स्वयं को

    ढलती साँसों के अनुरूप |बहुत सुन्दर मधुर गीत | बांसुरी पर मेरा भी एक गीत है -- कबसे मौन पडी है वंशी श्याम तुम्हारी | जल्दी ही ब्लॉग पर डालने का प्रयास करूंगा |

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    1. आदरणीय आलोक सिन्हा जी,प्रणाम !
      आप सभी के स्नेह और आशीर्वाद से हम सभी ठीक हैं,
      आपकी प्रेरणात्मक बातों से बहुत हौसला मिला,आपका बहुत शुक्रिया,प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार,आपका गीत पढ़ने जरूर आऊंगी ,आप अपना विशेष ख्याल रखिए, सादर शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह..

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  2. विडम्बना ही तो है कि अपने को सिद्ध करने के पहले हथौड़ियों की मार से, आग की तपन से, मुसीबतों के झंझावात से या सील पर रगड़वाना ही पड़ता है !

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    1. जी,सही कहा आपने,अपने को सिद्ध करना बहुत कठिन है, अतः हमें अपने कर्तव्य करते रहना चाहिए बस ।आपको मेरा सादर अभिवादन ।

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  3. सीधी सादी बाँसुरी अपना मधुर संगीत यूँ ही नहीं पैदा करती,उसके संगीत के पीछे का दर्द और चोट यदि कोई महसूस कर सके तो हममें से हर कोई एक-दूसरे के दुख-सुख को महसूस कर पाने में समर्थ होगा।

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    1. जी, बिलकुल सही कहा आपने यशवंत जी,इंसान का जीवन तब तक सार्थक नहीं होता जब तक वो दूसरों का दर्द न समझ सके ।

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  4. आपकी कविता भी अच्छी है जिज्ञासा जी (मैं स्वयं संगीत-प्रेमी हूँ, अतः बाँसुरी की तान के माधुर्य से भलीभांति परिचित हूँ) और गगन जी तथा यशवंत जी की टिप्पणियां भी सार्थक हैं।

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    1. बहुत बहुत आभार जितेन्द्र जी, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन है।

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  5. बह जाता है झर कर अहम और क्रोध

    बाँसुरी के धुन के संग



    बाँस की बाँसुरी रूखी सूखी सी

    दे देती है जीवन को मधुर रंग---वाह जिज्ञासा जी...गहन होना और गहनतम होना दोनों सफर ही तो हैं, गहन से गहनतम होने के दौरान बहुत सा है जो बदलता है, स्वरुप बदलता है और जो निखरता है वह आत्मबल हो जाता है। बहुत सुंदर कविता और उतने ही सुंदर भाव। खूब बधाई आपको।

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  6. संदीप जी, आपकी जीवन दर्शन के सुंदर भावों भरी प्रतिक्रिया से अभिभूत हूं,आपका बहुत बहुत आभार ।

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  7. प्रिय जिज्ञासा जी, आपकी रचना पढ़कर एक फिल्मी गीत की दो पंक्तियां याद आ रही हैंं------
    जो तार से निकली है वो धुन सबने सुनी है
    जो साज पे गुजरी है वो किस दिल को पता है??
    सो, बांसुरी के खोखला होने की पीड़ा को वो निर्मम संसार क्या जाने, जो उसकी धुन के माधुर्य में आकंठ निमग्न है।
    भावपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई 💐🌷🌷💐🙏💐

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    1. प्रिय रेणु जी, आपकी सुंदर भावों भरी टिप्पणी को हार्दिक नमन करती हूं,

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  8. आपका बहुत बहुत आभार ,सादर नमन ।

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  9. आपका बहुत बहुत आभार ज्योति जी,आपको मेरा सादर नमन ।

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  10. बाँसुरी की धुन जैसी सुंदर रचना ।

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  11. आपकी स्नेही टिप्पणी बिलकुल बांसुरी के धुन जैसी लगी, दीदी आपको मेरा सादर अभिवादन ।

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  12. वाह !! बहुत खूब ...अति सुन्दर ।।

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