बिन बुलाए मेहमान (किन्नर समाज को समर्पित)

हमारे देश की पहली किन्नर जज जोयिता मंडल जी बनीं थीं, जो बहुत ही हर्ष का विषय है ......
 मैंने ये कविता उनके सम्मान में तथा अपने एक अनुभव के आधार पर लिखी, क्योंकि मैं भी लोगों की तरह बचपन से किन्नरों को एक अजूबे से ज्यादा कुछ नहीं समझती थी, परंतु मेरे गृह प्रवेश पर जो किन्नर समूह इनाम मांगने आया उसकी मुखिया से जब मेरी काफी देर तक बात हुई तो मुझे लगा कि शायद ये मेरी मां भी है,और बहन या भाई भी, जो अपना जीवन और जीवन का दर्द बयां कर रहा है,उसी रिश्ते को समर्पित मेरी ये कविता....

बिन बुलाए 
वो आए
बन के मेहमान 
फिर सम्मान 
क्या मिलता उन्हें
जिन्हें
अजूबा समझ
बड़े ही सहज
ढंग से
इधर उधर बेढंग से
छोड़ दिया
मुख मोड़ लिया
अपने ही मां बाप 
ने,फिर कितने ही संताप
उन्हें घेरते
छेड़ते
वे लोग भी, जो कि ख़ुद में अधूरे हैं
कितने ही सरसब्ज हो जाएँ पर वे भी कहाँ पूरे हैं
ये किसी ने नहीं सोचा
बस उन्हें नोचा, बार बार नोचा
प्रताड़नाएँ 
ताड़नायें
ऐसी ऐसी
जैसी
कि वो इस संसार के नहीं हैं मनुष्य
फिर उनका भविष्य 
क्या होता जिनके अपने
पड़ोसी,मित्र भाई बहनें
मुंह फेर
ऐसे अलग हुए जैसे बदबूदार कूड़े के ढेर
के किनारे से
किस सहारे से
वे जिएं इस दोमुहें 
समाज को क्या कहें
जो सृष्टि के विधान पर
एक ऐसे इंसान पर 
उंगली उठाता है
जो स्वयं में खुद को नहीं समझ पाता है
कह उठता है, हे परमपिता
इस संसार के रचयिता
तूने मेरे साथ ये क्या किया
ऐसा जीवन क्यूँ दिया
क्या मैं ऐसे ही जीवन का अधिकारी हूँ 
मैं तो प्रकांड ब्रह्मचारी हूँ 
फिर मेरे साथ ये कैसा अन्याय
तेरा अभिप्राय 
समझते सदियाँ बीत रही हैं
और मेरी अपनी इन्द्रियाँ मुझसे प्रश्न कर, खीझ रही है
जिनकी दुश्वरियाँ मेरे सिवा कौन समझे
मैं अपने टूटे, अनसुलझे
इन हौसलों का क्या करूँ 
अब कौन सा रूप धरूँ 
आख़िर उन्हें कैसे समझाऊँ 
कैसे अहसास दिलाऊँ 
कि उन जैसे ही मनुष्य हैं हम
थोड़ा समझो हमारा गम
हमारे मन में उतरकर 
एक कोने में ठहरकर
जरा सोचो एकबार
मेरा आकार
मेरा प्रतिबिंब,मेरी छाया
मुझ में समाया
मेरा दर्द,
तुम्हें मेरा हमदर्द
बना देगा
जिस दिन वो समझ लेगा
कि मैं भी तुम्हारी मां की सन्तान हूँ 
तुम जैसा इंसान हूँ 
बस्स मेरे साथ नियति का खेल चल रहा है,
पर मेरे अंदर वो मानव पल रहा है
जो तुम्हारे आँगन की खुशियों पे झूमता है
तुम्हारे वंश को चूमता है
गले लगाता है
आसमान की ऊँचाइयों तक उठाता है
देता है स्वर्ग तक पहुंचने का आशीष
ऐसा शीर्ष 
जो शायद तुम सोच नही पाओगे
तुम खुद की औलाद को भी नही दे पाओगे
क्योंकि तुम्हें नहीं है उसका मोल
तुम्हारा जीवन है अनमोल
हमारे लिए हमारे समाज के लिए
हमारे आज के लिए
तुम अन्नदाता हो
हमारे विधाता हो 
तुम्हारे आगे हम हाथ फैलाते हैं
तुम्हारे दरवाजे बंद कर लिए जाते हैं
भगाते हो, देते हो हमें दुत्कार
पर वो तो हमें सत्कार 
नज़र आता है 
अधिकार नज़र आता है
तुम पे मेरा
मुझ पे तेरा
क्योंकि हमारा तुमसे जन्मों जन्मों का संबंध है
यही तो वो अनुबंध है
जो विधाता ने किया 
मुझे ऐसा वरदान दिया 
कि मैं नाचूँ गाऊँ तालियाँ बजाऊँ 
खुद पे इतराऊँ, इठलाऊं
बन ठन कर 
सज सँवर कर, 
झूम झूम कर कहूँ, कि मैं न नारी हूँ न नर हूँ 
तुम्हारे लिए अपूर्ण हूँ, अपने लिए सम्पूर्ण, एक किन्नर हूँ  

**जिज्ञासा सिंह** 

40 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (30-07-2021) को "शांत स्निग्ध, ज्योत्स्ना उज्ज्वल" (चर्चा अंक- 4141) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
    धन्यवाद सहित।

    "मीना भारद्वाज"

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    1. आदरणीय मीना जी,सादर नमस्कार !
      मेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए आपका असंख्य आभार, ब्लॉग पर निरंतर आपके स्नेह का स्वागत करती हूँ और आभार व्यक्त करती हूँ,सादर शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह ..

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  2. ओह!!
    बहुत ही हृदयस्पर्शी दिल को झकझोरती रचना...
    किन्नर समाज का दर्द सच में एक ऐसा दर्द एक ऐसी सजा जिसमें उनकी कोई गलती नहीं... अपनों से ही तिरस्कृत कितने सवालों में उलझा रहता होगा उनका मन खासकर तब जब कि वे सयझ भी न पाते होंगे कि आखिर कमी क्या है परमात्मा के सृजन का तिरस्कार है किन्नरों का तिरस्कार।
    चलो अब तो उन्हें काफी हक मिलने लगे हैं बड़ी बड़ी पोस्ट पर ये कार्यरत होने लगे हैं फिर भी समाज को भी इनके प्रति अपनी सोच बदलनी चाहिए।
    लाजवाब सृजन हेतु बहुत बहुत बधाई जिज्ञासा जी!

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    1. कविता को विस्तार देती आपकी प्रशंसनीय टिप्पणी का तहेदिल से स्वागत करती हूँ,आपकी टिप्पणियाँ कविता का मान बाधा जाती हैं,आपको मेरा सादर नमन एवं वंदन।

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  3. किन्नर समाज का दर्द व्यक्त करती बहुत ही सुंदर रचना, जिज्ञासा दी।

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  4. आपने समाज के इस व्यथित समाज के पक्ष को बाखूबी रखा है ... उनके दर्द के एक पहलू सबके सामने रखा है ...

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    1. आपका बहुत बहुत आभार दिगम्बर जी,आपकी विशेष प्रतिक्रिया का हार्दिक अभिनंदन है ।

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  5. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ३० जुलाई २०२१ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  6. श्वेता जी नमस्कार !
    मेरी रचना को "पांच लिंकों का आनन्द" में शामिल करने के लिए आपका हार्दिक आभार एवम अभिनंदन। सादर शुभकामनाओ सहित जिज्ञासा सिंह ।

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  7. मेरी परिचित हैं किन्नर रेशमा जी.. वे अपने समाज के लिए जंग लड़ती रहती हैं.. उनसे मिलना मुझे अच्छा लगता है

    उम्दा लेखन मेरे दिल को छू लिया

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    1. आदरणीय दीदी,आपकी सार्थक प्रतिक्रिया की आभारी हूं,आपको मेरा सादर नमन।

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  8. जिज्ञासा, बहुत ही मानवीय ढंग से तुमने इस सामाजिक समस्या को उठाया है.
    समाज की बेरहमी के साथ-साथ भगवान के अन्याय की भी दास्तान है किसी किन्नर का अभिशप्त जीवन !
    इनके सम्मानजनक पुनर्वास के लिए सरकार को ही नहीं, हम सब जागरूक नागरिकों को भी आगे आना चाहिए.

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    1. आदरणीय सर आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया को नमन करती हूं। आपका सुझाव भी बहुत अच्छा है।

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  9. उत्तर
    1. आदरणीय जोशी जी,आपका हार्दिक आभार एवम आपको मेरा सादर अभिवादन।

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  10. तुम्हारे लिए अपूर्ण हूँ, अपने लिए सम्पूर्ण, एक किन्नर हूँ
    बेहतरीन..
    सादर..

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  11. किन्नर समाज के लिए तुम्हारी भावनाएं सराहनीय हैं ।
    ये भी हमारे समाज के महत्त्वपूर्ण अंग हैं । और फिर न जाने क्यों इनको इंसान नहीं समझते । यदि ये भेद भाव नहीं किया जाता तो ये भी आम इंसान की तरह जीवन व्यतीत करते ।
    बहुत अच्छा लिखा है ।

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  12. वाह!सुंदर ,हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति जिज्ञासा ।

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    1. बहुत बहुत आभार शुभा जी, आपकी प्रशंसा का हार्दिक स्वागत है।

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  13. समाज की यह कैसी व्यवस्था है !!हृदयविदारक रचना |

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  14. मुख्य धारा में सभी आयें और अपना योगदान दें। संवेदनीय प्रस्तुति।

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  15. जोयिता मंडल जी को हार्दिक बधाई इस आशा के साथ कि वे अपने समाज के लिए एक आदर्श बनकर अन्यों को भी राह दिखाएंगी, ज्योति पुंज बनेंगी। आपको शबनम मौसी का स्मरण होगा जिज्ञासा जी जो कि देश की पहली किन्नर विधायक बनीं। आपकी कविता में इस समाज का दर्द बांटा गया है किन्तु 'यही तो वो अनुबंध है' वाले अंतरे से मैं असहमति व्यक्त करता हूँ। उनका जैविक स्वरूप तथा कष्टमय (एवं तिरस्कार से पूर्ण) जीवन विधाता का वरदान नहीं, अभिशाप है जो उन्हें मनुष्य के रूप में जीने नहीं देता तथा वे चिरकाल से ही समाज द्वारा तिरस्कृत एवं मौलिक मानवीय अधिकारों से वंचित रहे हैं। वे इसलिए नहीं बने हैं कि नाचें, गाएं, तालियां बजाएं तथा तथाकथित सभ्य (एवं सामान्य) समाज के मनोरंजन की वस्तु बनकर जियें। उन्हें भी शबनम मौसी तथा जोयिता मंडल की तरह शिक्षा प्राप्त करने एवं समाज कि मुख्यधारा में रहकर अपने जीवन को समुन्नत करने का अधिकार उसी भांति है जिस भांति सामान्य स्त्रियों एवं पुरुषों को। विधाता के अन्याय को दूर न किया जा सके तो समाज तो उनके साथ अन्याय करना छोड़े तथा समान अधिकार, सुविधाएं एवं सम्मान दे। आशा है, आप मेरी बात को अन्यथा नहीं लेंगी। तथापि यदि आप आहत हुई हों तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।

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    1. आदरणीय जितेन्द्र जी, मैं आपकी इस बात से सहमत हो सकती हूं, कि किन्नरों का जीवन वरदान नही वो अभिशाप है,परंतु अगर किसी को भी ऐसा जीवन मिले वो भी ईश्वर प्रदत्त ।जो लाइलाज है,तो कहने का तात्पर्य है कि अगर वे अपने जीवन को नित्य अभिशाप मानेंगे तो वे मानसिक रोगी हो जाएंगे क्योंकि जब उन्हें अपने जीवन यापन के लिए भीख स्वरूप इनाम मांगना पड़ता है,तो उन्हें तो इसी आधार पर जीवन जीना है, "कि जिस चीज का विकल्प न हो उसे सहन कर लेना चाहिए" फिर ऐसे समाज में जहां उनके लिए कोई व्यवस्था नहीं है,चाहे वो पारिवारिक हो या सामाजिक या आर्थिक या राजनीतिक । वे एक ऐसे समाज में रहते हैं जहां उन्हें हर रिश्ते का निर्माण स्वयं करना पड़ता है,तो फिर क्यों न अपने जीवन को वरदान मानकर वो समाज की एक और जोयिता मंडल या फिर शबनम मौसी बने परंतु जब हम अपने घर के बच्चों को हर एक सुविधा देने के बाद भी सर्वसमाज में एक अच्छा मुकाम बमुश्किल दिलवा पाते हैं,तो इन किन्नरों की बात कैसे कर सकते हैं, जिन्हें इनाम के तौर पर कुछ धनराशि देने में हिचकिचाते हैं,ये सच है कि अगर इन्हें उचित व्यवस्था मिले तो शायद इनके जीवन में भी सुधार हो सकता है। रही अनुबंध की बात तो मैंने ये अनुभव किया कि उन्हें नाचने,गाने का कोई ऐसा क्षोभ नहीं बस उन्हें उनके काम का सम्मान मिलना चाहिए, जो कि उन्हें परिवार के साथ साथ किसी का भी नहीं मिलता है । हां हर इंसान की अपनी अपनी रुचि भी हो सकती है,ऐसी ही मुंबई की प्रसिद्ध किन्नर हैं पूजा शर्मा जो कि लोकल ट्रेन में डांसर हैं और लोग उन्हें रेखाजी कहते हैं।
      आपकी बात अपनी जगह बिलकुल सच है, जितेन्द्र जी, मैं सहमत भी हूं,पर कहीं कुछ बदलाव तो दिखे तो समझ में आए कि हमारे समाज का नव निर्माण हो रहा है जहां किसी भी कोने में,किसी भी दृष्टि से सामाजिक तौर पर भेदभाव नहीं है,तभी सारी बातें सही हो सकती हैं। आपके सुंदर सार्थक विमर्शों का हमेशा हार्दिक स्वागत है,आपको मेरा सादर नमन🙏🙏 ।

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  16. आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय विश्वमोहन को,आपको मेरा सादर नमन 🙏🙏💐💐

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  17. समाज को अपना पूर्वाग्रह से ग्रस्त दृष्टिकोण यथाशीघ्र बदलना होगा । तब किन्नरों को भी समता का अधिकार अवश्य मिलेगा । अत्यंत प्रभावशाली सृजन ।

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  18. आपके विचारों से सहमत हूं, आपका हार्दिक आभार अमृता जी।

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  19. बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना । बहुत बहुत आशीष , शुभ कामनाएं ।

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  20. आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय सर 🙏🙏

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  21. किन्नर समाज के दर्द और उनकी मनःस्थिति को दर्शाता सुन्दर और सार्थक सृजन। किन्नर हमारे ही समाज के अंग हैं। ये बात हम सबको याद रखनी चाहिए। इनके साथ सम्मान से पेश आया जाये। किन्नरों को भी अपने जीवन में बेहतर करने का प्रयास करना चाहिए। जोगिया मंडल को ढेरों बधाई। एक हृदयस्पर्शी सृजन के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई।

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  22. आपका बहुत बहुत आभार वीरेन्द्र भाई।

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