बहरूपिए भिखारी


बने भिखारी खड़े हुए

गंदली दाढ़ी,फटी जुराबें
फटेहाल दिखते भी मुझको
बास तुम्हारे मुँह की कहती
रोटी नहीं मिली कल तुमको
  
लिए कटोरा घूम रहे
अब मेरे द्वारे गड़े हुए

कभी शहर के इस कोने पे
कभी दिखे उस कोने पर
कितने चक्कर रोज़ मारते
खाने के एक दोने पर

लगता है बस भीख मांगते
छोटे से तुम बड़े हुए

अरे मनुज हो कभी तो सोचो
क्यों कर इस जग में आए हो
देह तुम्हारी हृष्ट पुष्ट है
मन से केवल भरमाए हो

कहूँ अगर कुछ कर्म करो
तो सीना ताने अड़े हुए

ऐसी क्या मजबूरी है जो
कर्म न करना चाहो तुम
भीख मांगकर पेट पालने
का पेशा अपनाओ तुम

तरह तरह का रूप धरे
तुम सबके पीछे पड़े हुए

**जिज्ञासा सिंह**
चित्र-गूगल से साभार 

24 टिप्‍पणियां:

  1. बस यही भाव आते हैं मन में। आभार उन्हें शब्दों में उजागर करने का।

    जवाब देंहटाएं
  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार(०४-०८-२०२१) को
    'कैसे बचे यहाँ गौरय्या!'(चर्चा अंक-४१४६)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अनीता जी, मेरी रचना को चर्चा अंक में शामिल करने के लिए आपका हार्दिक आभार एवम अभिनंदन। शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह।

      हटाएं
  3. काश अपने बाहुबल पर भरोसा करें । लेकिन जब बिना काम के चल रही ज़िन्दगी तो कोई क्यों मेहनत करे ।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत बढ़िया प्रस्तुति प्रिय जिज्ञासा जी! हट्टे -कट्टे भिखारी, जिन्हें बस पैसों से मतलब है , को मेहनत का ना शौक है ना उनकी मजबूरी! उनका काम चल रहा है अच्छा खासा!
    उन्हें आपकी ये खरी- खरी कभी नहीं भाएगी। लोग इन्सानियत के के नाते उन्हें दान देते हैं पर वास्तव में उन्हें कुछ न देकर कर्म के लिए प्रेरित करते रहना चाहिए। प्रशासन को भी इन तंदरुस्त और स्वस्थ भिखारियों को काम सिखाकर स्वाभिमान की आजीविका के लिए प्रेरित करना चाहिए। सार्थक रचना के लिए हार्दिक आभार और शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं
  5. आपकी समीक्षात्मक प्रशंसा ने रचना का मान रख लिया,मर्म तक पहुंच सुंदर प्रशंसा के भाव,जितना आपका आभार करूं,काम है,आपको मेरा सादर नमन।

    जवाब देंहटाएं
  6. आपकी कविता हमारे देश के भिक्षुकों के एक बड़े वर्ग पर अक्षरशः लागू होती है जिज्ञासा जी। बालकों पर यह लागू नहीं क्योंकि उन्हें तो विवश किया जाता है चाहे उनके माता-पिता (जो स्वयं भिक्षुक होते हैं) द्वारा अथवा किसी अपराधी गिरोह द्वारा। इसके अतिरिक्त हमारे देश में ऐसे भी अनेक भिक्षुक हुए हैं (विशेषतः नवम्बर 2016 तथा मार्च 2020 के उपरांत) जिन्हें हालात ने दूसरों के समक्ष हाथ पसारने पर विवश कर दिया। वे काम करना चाहते थे मगर काम ही नहीं था (काम दे सकने वाले ख़ुद मजबूर हो गए थे क्योंकि वे उन्हें भुगतान करने की हालत में ही नहीं रहे)। यदि हम चाहते हैं कि कोई मांगना छोड़कर काम करे तो उसके लिए उसे उपदेश देना ही पर्याप्त नहीं, उसके लिए काम उपलब्ध भी करवाया जाना चाहिए। काम न मिलने या अपना काम-धंधा चौपट हो जाने से मजबूर इंसान की मजबूरी भी समझी जानी चाहिए। बालकों से बलपूर्वक भिक्षाटन करवाने वाले अपराधियों पर कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए तथा ऐसे बालकों के भरण-पोषण एवं शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। भिक्षुकों को कोसना एवं उनका तिरस्कार करना सरल है किंतु यह स्मरण रहे कि उनका पुनर्वास समाज एवं सरकार का उत्तरदायित्व भी है। अच्छी कविता हेतु अभिनंदन आपका।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जितेन्द्र जी,आपकी इस प्रतिक्रिया ने मेरे अवचेतन मन को कई ऐसे संदर्भ दिए है जिसमें मैं आगे लिखने को प्रेरित होती रहूंगी,नए दृष्टिकोण,नए विषय पर मुझे ले जाने के लिए आपका असंख्य आभार। शुरुआती दिनों में कुछ लिखा भी है मैंने, प्रतिक्रिया पढ़ने के बाद मैने काफी चिंतन किया और कई विषयों पर ध्यान गया । सुंदर दृष्टिकोण देने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया।

      हटाएं
  7. अरे मनुज हो कभी तो सोचो
    क्यों कर इस जग में आए हो
    देह तुम्हारी हृष्ट पुष्ट है
    मन से केवल भरमाए हो---आईना दिखाती कविता...।

    जवाब देंहटाएं
  8. संदीप जी आपकी प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन एवम वंदन।

    जवाब देंहटाएं
  9. यह भी प्रारब्ध हैं सखी जो न जाने कितने नाम लिए होती है हर मजबूरी एक कहानी लिए होती है।
    सुंदर सृजन ।

    जवाब देंहटाएं
  10. जिज्ञासा जी..बहुत से भिखारियों के सन्दर्भ आप का सृजन बहुत सही है। सुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति के लिए आप बधाई की पात्र हैं।

    जवाब देंहटाएं
  11. बहुत सुंदर और सार्थक सृजन।

    जवाब देंहटाएं
  12. बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय अनुराधा जी 🙏🙏💐

    जवाब देंहटाएं
  13. बहुत बहुत आभार आपका । आपकी टिप्पणी से रचना सार्थक हो गई, आपको मेरा सादर नमन एवम वंदन💐💐🙏🙏

    जवाब देंहटाएं