प्रगति और प्रकृति का संघर्ष

मनुजता और प्रकृति के मध्य एक संघर्ष जारी है

मनुज सौ दिन प्रकृति को छल के, चढ़ता शीश पर उसके,
प्रकृति ने चाल उसकी, एक क्षण में यूँ उतारी है ।

कि पर्वत ऋणखलाएँ टूट कर, गिरती हैं तृण बनके 
औ चट्टानों में दबकर सिसकतीं साँसें हमारी हैं ।।

घने वन के दरख़्तों ने हमें क्या कुछ है कम झेला ?
वो रोते रह गए, हमने चलायी उनपे आरी है ।

मनुज ही ऐसा प्राणी है, जो साँसों का करे सौदा,
तो मानव ही जगत में, श्वाँस का दिखता भिखारी है ।।

अनर्गल क्षत विक्षत करते धरा जो, स्वार्थ वश अपने,
उन्हीं के वंश पर चलती, प्रकृति की भी कुल्हारी है ।

चमन में डाल पर बैठा उजाड़े घोसला जो खुद,
धरा भी फिर कहाँ उनके लिए आँचल पसारी है ।।

चलो माना प्रगति की राह में आती हैं ये मुश्किल,
मगर जो ठान ले कोई तो बाधा उससे हारी है ।

बड़ी विपदा भी टल जाती, प्रकृति का नियम मानें गर,
मगर मानव कहां माने, वो लिप्सा का पुजारी है ।।

**जिज्ञासा सिंह** 

26 टिप्‍पणियां:

  1. प्रकृति कहे इंसान से
    तू क्या रौंदे मोहि
    इक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूंगी तोय

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    1. बिलकुल सही कहा आपने । कुछ ऐसा ही होना है, क्योंकि इंसान तो किसी की सुनता कहां है ।

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  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार
    (21-11-21) को "प्रगति और प्रकृति का संघर्ष " (चर्चा - 4255) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

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  3. चर्चा मंच पर रचना के चयन के लिए आपका बहुत बहुत आभार कामिनी जी । मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।

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  4. चलो माना प्रगति की राह में आती हैं ये मुश्किल,
    मगर जो ठान ले कोई तो बाधा उससे हारी है ।
    आपने बिल्कुल सही कहा, हम सबको प्राकृतिक के प्रत्यय सर्जक और जागरूक होना ही होगा हर किसी को अपनी जिम्मेदारी समझनी ही होगी प्रकृति के प्रति नहीं तो अविनाश को कोई नहीं रोक सकता! प्रधानमंत्री जी ने जो 2070 तक कार्बन जीरो करने का लक्ष्य साधा उसमें हम सबको सहयोग करना ही होगा ! हम सबको प्रकृत का मित्र बनकर रहना होगा तभी जीवन स्वस्थ और सुखमय होगा! जलवायु परिवर्तन आज के युग की सबसे बड़ी चुनौती बन गया है जिस कसम हम सबको मिलकर करना होगा!
    महत्वपूर्ण विषय पर लिखी गई बहुत ही सुंदर रचना

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    1. सटीक सारगर्भित समीक्षात्मक प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार प्रिय मनीषा ।

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  5. अनर्गल क्षत विक्षत करते धरा जो, स्वार्थ वश अपने,

    उन्हीं के वंश पर चलती, प्रकृति की भी कुल्हारी है ।

    बड़ी उम्दा रचना

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  6. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 22 नवम्बर 2021 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. आपका बहुत बहुत आभार दीदी, पाँच लिकों का आनंद पर मेरी रचना के चयन के लिए आपका बहुत धन्यवाद । मेरी हार्दिक शुभकामनाएं 💐💐

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  7. सच !सटीक जिज्ञासा जी।
    प्रकृति हमारी चेरी नहीं है जो हमारे निर्देश पर अपनै कार्य करें ! हमारी अपनी नादानियां और खुदगर्जियाँ हमें भारी पड़ती है,और जाने प्रकृति कितना विकराल रूप दिखाएगी।
    चेतावनी और सलाह दोनों है आपकी रचना में।
    सुंदर सार्थक सृजन।

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  8. मैं आपकी बात से सौ प्रतिशत सहमत हूं, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया रचना को परिभाषित कर गई । आपको मेरा नमन एवम वंदन ।

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  9. प्रगति और प्रकृति का संघर्ष निरन्तर जारी है
    उम्दा चित्रण

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  10. आपकी इस कविता के भाव से मैं शत-प्रतिशत सहमत हूँ जिज्ञासा जी। किसी भी सही सोच वाले के लिए इसमें असहमति की गुंजाइश है ही नहीं। अभिनंदन आपका।

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    1. आपकी प्रतिक्रिया का तहेदिल से स्वागत करती हूं, जितेन्द्र जी,मेरा आपको हार्दिक नमन ।

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  11. प्रकृति की रक्षा अभी भी नहीं कि गयी तो आने वाली पीढ़ियों के जीवन दूभर हो जाएगा । हम लोगों ने ही कितना बदलाव महसूस किया है जीवन में । यदि मानव संतुलन बना कर नाहीचल तो प्रकृति तो अपने आप संतुलन बना देती है । सार्थक लेखन ।

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  12. आपकी टिप्पणी के बिना ब्लॉग सूना लगता है,अपना स्नेह बनाए रखिए, आपको नमन और वंदन ।

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  13. मनुज ही ऐसा प्राणी है, जो साँसों का करे सौदा,
    तो मानव ही जगत में, श्वाँस का दिखता भिखारी है ।।

    अनर्गल क्षत विक्षत करते धरा जो, स्वार्थ वश अपने,
    उन्हीं के वंश पर चलती, प्रकृति की भी कुल्हारी है ।

    वाह!!!
    प्रगति और प्रकृति पर चेतावनी और सलाह देती कमाल की रचना।
    अद्भुत शब्द संयोजन
    लाजवाब सृजन।

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  14. इतनी सुंदर सराहना ने कविता को सार्थक कर दिया ।ऐसी प्रतिक्रिया हमेशा मनोबल बढ़ाती है,और नव सृजन का मार्ग प्रशस्त करती है ।सुधा जी,आपको मेरा सादर नमन ।

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  15. बहुत ही सुंदर सृजन आदरणीय जिज्ञासा दी जी।
    सादर

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