नृप घर जन्म लियो बैदेही ।
मिले राम प्रिय प्रेम सनेही ।।
काल कुचाल चला जब अपने ।
उजड़ा अवध टूट गए सपने ।।
कुबड़ी ने एक जाल बिछाया ।
कैकेई को खूब फंसाया ।।
मति मतांध में मातु फँसी जब ।
रघुवर को बन भेज हँसी तब ।।
ऐसी बिपदा आ पड़ी, अवधपुरी पर आज ।
दसरथ नैनन नीर हैं, रोवत सबहि समाज ।।
दोनों भाई राम लक्ष्मन ।
बैदेही संग जाते हैं बन ।।
पूरा अवध आज ब्याकुल है ।
पसु पच्छी स्रिस्टी आकुल है ।।
कौन धराए धीर अवध को ।
भूमि परे राजन दसरथ को ।।
मान किया रघुवर ने नृप का ।
धर्म निभाया राजन सुत का ।।
दिन बीते बीती निसा, उठि रघुनंदन भोर ।
पीत वस्त्र धारन किया, चले हैं बन की ओर।।
**जिज्ञासा सिंह**
बहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंसियावर रामचंद्र की जय !
बहुत बहुत आभार आदरणीय सर 🙏💐
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार अनीता जी 🙏💐
जवाब देंहटाएंअत्यंत सुंदर ...., मनमोहक सृजन ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार मीना जी ।
हटाएंसदृश सा वर्णन राम वन गमन का।
जवाब देंहटाएंसुंदर काव्य सृजन
बहुत बहुत आभार कुसुम जी ।
हटाएंवाह! सिया-राम के वन गमन का सरस वर्णन, बधाई!
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार अनीता दीदी ।
जवाब देंहटाएंसरस लोक लुभावन शब्दावली के साथ भावपूर्ण वन गमन चित्रण प्रिय जिज्ञासा जी। रामकथा का ये भावुक प्रसंग हृदयस्पर्शी। है। आपने बहुत बढ़िया शब्दावली से सजाया है। स स्नेह शुभकामनाए और स्नेह आपके लिए 🌷🌷🌷🌷
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका रेणु जी🙏💐
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