मन का मार्ग


मार्ग था धुला धुला
द्वार भी खुला खुला
                मन हुआ कि चल पड़ें
                  खुद से अब निकल पड़ें
दिखे अगर पड़ाव जो
पवन का है बहाव जो
                      उधर ही रुख मेरा भी हो
                       या फिर कोई नया भी हो
चले है ये विचार मन 
या लूँ कोई उधार मन
                     जो देखता न हो मुझे
                     बुला रहा अहो तुझे
उसे भी कुछ न सूझता
न राह वो भी बूझता
                    चले विचार का विमर्श
                     सदृश्य हो या हो सहर्ष
ये मान भी करेगा वो
दिए के सम जलेगा वो
                  तपेगा  वो पतंग सा
                  बचेगा जो धड़ंग सा
श्वेत वस्त्र को पहन
मनन मनन मनन गहन
                   चला चला चले है वो
                   है राह अब गहे है जो
न यत्र से न तत्र से
लिखेगा ताम्रपत्र से
                    भुजंग सी लकीर वो
                     नहीं नहीं फकीर वो
तुम्हारे जैसा है मनुष
न गांडीव न धनुष
                        लगा के लक्ष्य के निशाँ 
                         वो ले चला है कारवाँ 
है शीर्ष पर धरे जलज
औ पाँव चूमती है रज
                        बड़े कदम, कदम बढ़े
                           कसीदे कारवाँ पढ़े ।।।

**जिज्ञासा सिंह

32 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 29 नवम्बर 2021 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय दीदी, "पांच लिंकों का आनन्द" में रचना का चयन होना गर्व की अनुभूति देता है, तहेदिल से आपको नमन और वंदन ।

      हटाएं
  2. बहुत ख़ूब !
    गीत में क्या रवानगी है ! बिलकुल मार्चिंग सॉंग जैसी !

    जवाब देंहटाएं
  3. मन का द्वार यदि खुला खुला हो और सब धुला धुला तो बुद्धत्व पाना मुश्किल नहीं ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपकी प्रतिक्रिया ने कविता को सार्थक कर दिया । आपको मेरा नमन और वंदन ।

      हटाएं
  4. वाह! जिज्ञासा जी सच कहूं मजा आ गया नीरज जी की एक कृति कारवां गुज़र गया की धुन औरक्षराग इसक्षपर एकदम फिट बैठ रही है।
    सुंदर सरस गेय रचना ।

    जवाब देंहटाएं
  5. आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय कुसुम जी, आपकी प्रशंसा बहुत मायने रखता है,आपको मेरा नमन और वंदन ।

    जवाब देंहटाएं
  6. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (29 -11-2021 ) को 'वचनबद्ध रहना सदा, कहलाना प्रणवीर' (चर्चा अंक 4263) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

    जवाब देंहटाएं
  7. रचना के चयन के लिए आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी । मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ।

    जवाब देंहटाएं
  8. उत्तर
    1. में ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत और अभिनंदन करती हूं आदरणीय सर 🙏💐
      आपकी प्रशंसा ने रचना को सार्थक कर दिया । आपका हार्दिक आभार, नमन एवम वंदन ।

      हटाएं
  9. जिज्ञासा नाम को सार्थक करती सी भली-भली रचना

    जवाब देंहटाएं
  10. अति सुन्दर ! वैसे भी चलते रहना ही जीवन है !

    जवाब देंहटाएं
  11. वाह!सराहनीय सृजन आदरणीय जिज्ञासा दी।
    काफ़ी बार पढ़ा.. बेहतरीन 👌

    जवाब देंहटाएं
  12. बहुत बहुत आभार अनीता जी,आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन एवम वंदन ।

    जवाब देंहटाएं
  13. अप्रतिम सृजन,मोहक पंक्तियां

    जवाब देंहटाएं
  14. वीर तुम बढे चलो ...
    धीर तुम बढे चलो ...
    मैथिलि शरण जी की रचना है शायद ये जो बचपन में पढ़ी थी ... आपने यादों को ताज़ा कर दिया ... बहुत भावपूर्ण सुन्दर रचना ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी, दिगम्बर जी, सही कहा आपने ।इस लय पर मेरी कविताएं बचपन से ही अपने आप बन जाती हैं।ये छोटे मुखड़े की रचनाएँ मुझे बड़ी प्रिय हैं..वैसे वीर तुम बढ़े चलो .कविता शायद द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी की है😀😀
      प्रशंसा के लिए आपका हार्दिक आभार ।

      हटाएं