बंधनों में मासूम


बंधनों में बंध गईं वो उँगलियाँ
जो पकड़ने की उमर थीं तितलियाँ

जानती हूँ तुम गरीबी से घिरी हो
और समझती मैं तेरी मजबूरियाँ

इस परिश्रम से मिलेंगे चार पैसे
और पैसे से मिलेंगी रोटियां

काश उन हाथों को देती पुस्तकें मैं
पढ़के, चढ़ती तुम शिखर की चोटियाँ 

तेरे द्वारे भी दिवाली हँस के आती 
तुम सजातीं थाल औ दीपों की लड़ियाँ  

एक चमन होता तेरा फूलों का प्यारा
होंठ पे खिलती सदा फूलों की कलियाँ 

खेलती तुम चाँद तारों बीच बैठी
साथ होती सुनहरे पंखों की परियाँ 

पर तुम्हारी उँगलियों को क्या कहूँ मैं
उनके हाथों सज रहीं चिंगारियाँ

जो खुशी देती हैं लोगों को जहाँ में
पर तुम्हें देती हैं केवल रोटियाँ 

**जिज्ञासा सिंह**
      लखनऊ

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बहुत आभार शरद जी । ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है ।

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  2. जो खुशी देती हैं लोगों को जहाँ में
    पर तुम्हें देती हैं केवल रोटियाँ..... सुन्दर लिखा है

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  3. बहुत बहुत आभार आपका संजय जी । आपकी टिप्पणी देख बहुत सुखद अनुभूति हुई ।

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  4. काश उन हाथों को देती पुस्तकें मैं
    पढ़के,चढ़ती तुम शिखर की चोटियाँ
    क्यों हमेशा ऐसा होता है कि जो लोग मदद करना चाहते, दूसरों के लिए कुछ करना चाहते वे चाह कर भी कुछ नहीं कर पाते हैं? क्यों सिर्फ एक आंह मात्र भर कर रह जाते है? और जो कर सकते हैं वे क्यों नहीं दूसरों के लिए कुछ करना चाहते?
    बहुत ही मार्मिक और हृदयस्पर्शी रचना!

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  5. ऐसा कई लोग करते हैं प्रिय मनीषा परंतु वो न के बराबर है,और उससे
    समाज सुधार संभव नहीं इसके लिए सरकार और आमजन का सामूहिक सहयोग होना चाहिए जो जमीन पर दिखे ।मैने बचपन से अभी तक कई लोगों को अक्षर ज्ञान कराया है और आज भी करती हूं,कुछ तो इन गरीबों का भी दोष होता है, ये खुद भी आगे आकर कुछ नहीं करना चाहते । इनको सब कुछ करके दो और उसके बाद विद्यालय भी साथ जाओ तो भी ये सुधारना नहीं चाहते ।जीवन में आगे बड़े कटु अनुभव होंगे प्रिय मनीषा । एक बच्चे को मैने स्कूल की सारी व्यवस्था कर दी।जब मैं मीटिंग में गई तो पता चला कि वो तो पढ़ने ही नहीं आ रहा, जब मैंने चेक किया तो पता चला कि वो दुकान पर चाय के कप धोने लगा स्कूल टाइम में,और मैं बकायदा उसे टिफिन बनाकर देती थी। कहने का मतलब इनके साथ इनके माता पिता को भी पढ़ना पड़ेगा ।तभी सुधार संभव हो सकता है । बहुत आभार तुम्हारा ।

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    1. आप बिल्कुल सही कह रही है मैम मैंने भी कई ऐसे अभिभावक को देखा है जो अपने बच्चों की पढ़ाई के प्रति जागरूक नहीं होते हैं और उन्हें पढ़ाना ज्यादा जरूरी नहीं समझते हैं गरीब होने के कारण हमेशा गरीबी का हवाला दे देते हैं! बहुत दुख होता है जब हम पूरी कोशिश करते हैं किसी की मदद करने के लिए किसी की जिंदगी सवार ना चाहते हैं लेकिन वह खुद अपनी जिंदगी को अपने हाथों से बर्बाद करने पर तुला होता है और खुद के पद पर कुल्हाड़ी मार रहा होता है! ऐसे अभिभावकों को समझा पाना बहुत ही मुश्किल होता है क्योंकि कहीं ना कहीं इनमें पैसों का लालच होता है इसीलिए बच्चों को पढ़ने के लिए भेजते नहीं हैं ! लेकिन यह समझ नहीं पाते हैं कि अगर आज थोड़ी तकलीफ उठा ली तो आने वाला कल बहुत ही बेहतर और सुनहरा होगा! काश कि समझ पाते!

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  6. काश उन हाथों को देती पुस्तकें मैं
    पढ़के, चढ़ती तुम शिखर की चोटियाँ
    उत्तम भाव लाजवाब सृजन
    वाह!!!

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