फिर रीता सा शहर दिखे है मेरा ।
भारी मन से हवा बहे,
गम का दिखे बसेरा ।।
काली काली घिरी घटाएँ
मुंडेरी पर लटकी आएँ,
हैं जल से वो लदी हुई
कब भेहरा के वो बह जाएँ,
किस ऋतु का ये कैसा मौसम
चारों तरफ़ घनेरा ।।
ऊपर की साँसें ऊपर हैं
नीचे धरती खिसक रही,
नई दुल्हन की चादरिया
भी रह रह करके धसक रही,
ढाँढस भी अब कौन धराए
अपनों ने मुँह फेरा ।।
आहट घबराहट की ऐसी
शंका है, शंकालु सभी,
कौन किधर से कब निकला है
किससे मिलकर अभी अभी,
मिलना-मिलन सभी कुछ दुर्लभ
सिमटा खुद में डेरा ।।
बंधीं बल्लियाँ, कसी रस्सियाँ
दिखें कई दरवाजों पर,
दिनचर्या भी हुई संयमित
रोक लगी है साजों पर,
दिखे हर तरफ फिर से दहशत
खामोशी ने घेरा ।।
जीवन का अकाट्य शत्रु
ये पैर पसारे घर घर,
क्षणिक चूक से बनके मेहमां
आ जाता ये सजकर,
नहीं देखता दिन-रैना ये
संध्या और सवेरा ।।
धीरे धीरे पैठ बनाकर
अंदर घर कर लेता,
दारुण दुख की हर पीड़ा
को रोम रोम में देता,
अरि जैसा ये घात लगाता
जीवन चैन लुटेरा ।।
कोई इसको कोविड कहता
कोई कहे करोना,
सबको इसने दर्द दिए हैं
सबका इससे रोना,
जाति न कोई धर्म न कोई
न तेरा न मेरा ।।
**जिज्ञासा सिंह**
ऊपर की साँसें ऊपर हैं
जवाब देंहटाएंनीचे धरती खिसक रही,
नई दुल्हन की चादरिया
भी रह रह करके धसक रही,
ढाँढस भी अब कौन धराए
अपनों ने मुँह फेरा ।।
बहुत सजीव चित्रण!!!
आपकी सराहनीय टिप्पणी ने रचना को सार्थक कर दिया, आपका बहुत बहुत आभार,आपको मेरा सादर अभिवादन ।
जवाब देंहटाएंइस अराजक काल में ढीठ होकर बस भय और दर्द को सबके मन में बोना ... किसी ने कल्पना तक नहीं किया था ऐसे आएगा कभी कोरोना । आह के अतिरिक्त कुछ भी नहीं ....
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार अमृता जी,रचना पर सार्थक टिप्पणी के लिए आपको हार्दिक नमन ।
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बृहस्पतिवार (13-1-22) को "आह्वान.. युवा"(चर्चा अंक-4308)पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा
कामिनी जी,नमस्कार🙏
जवाब देंहटाएंरचना को चर्चा मंच में चयन के लिए आपको तहेदिल से शुक्रिया,मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ।
धीरे धीरे पैठ बनाकर
जवाब देंहटाएंअंदर घर कर लेता,
दारुण दुख की हर पीड़ा
को रोम रोम में देता,
अरि जैसा ये घात लगाता
जीवन चैन लुटेरा ।।
कोरोना की दहशत को बड़े ही सशक्त ढंग से अभिव्यक्ति दी है आपने जिज्ञासा जी | सार्थक रचना के लिए हार्दिक बधाई |
बहुत बहुत आभार । आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन एवम वंदन ।
हटाएंकोरोना एक बार फिर क़हर बरपा रहा है, आपने सही आकलन किया है उस पीड़ा का, जो लोगों को इसके आतंक में भोगनी पड़ रही है
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका । आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन एवम वंदन ।
हटाएंसमसामयिक समस्या पर बेहतरीन सृजन सखी
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका अभिलाषा जी । आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन एवम वंदन ।
हटाएंजीवन का अकाट्य शत्रु
जवाब देंहटाएंये पैर पसारे घर घर,
क्षणिक चूक से बनके मेहमां
आ जाता ये सजकर,
नहीं देखता दिन-रैना ये
संध्या और सवेरा ।।
बहुत ही लाजवाब समसामयिक ...
उत्कृष्ट सृजन।
बहुत बहुत आभार सुधा जी । आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन एवम वंदन ।
हटाएंकोरोना विषाणु के पुनः जोर पकड़ने पर जैसी दशा हुई है आपने हुबहू उसे शब्दों में उकेर दिया ,सत्य चित्र जैसा लग रहा है सब।
जवाब देंहटाएंअभिनव हृदय स्पर्शी सृजन।
बहुत बहुत आभार आपका कुसुम जी । आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को हार्दिक नमन एवम वंदन ।
जवाब देंहटाएंजाने कब मुक्ति मिलेगी इस भय की छाया से।
जवाब देंहटाएंसचमुच हद हो गयी है।
महामारी की दशा का सचित्र काव्यात्मक विश्लेषण सराहनीय है जिज्ञासा जी।
सस्नेह।
बहुत बहुत आभार श्वेता जी, आपकी प्रतिक्रिया ने रचना को सार्थक कर दिया । आपको मेरा सादर नमन ।
जवाब देंहटाएंसमसामयिक स्थिति को बयां करती उत्कृष्ट सृजन!
जवाब देंहटाएंकोरोना ने सभी के जीवन को तहस नहस करके रख दिया है!
हर चेहरा आज बेचैन और परेशान है,
मास्क के पीछे छुपी मुस्कान है!
डरा सहमा हर कोई आज है!!
बहुत बहुत आभार प्रिय मनीषा ।
जवाब देंहटाएंकरोना की मार झेल चुके हैं . कैसा भयावह काल था. ईश्वर की कृपा रही कि सब सही-सलामत बच कर निकल आये.
जवाब देंहटाएंआपकी टिप्पणी रचना को सार्थकता प्रदान करती है आप को मेरा नमन और बंदन ।
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