गुलाबो के फूल (बालिका दिवस)


फुलवा चुन चुन चलीं गुलाबो,मंदिर आज सजाने ।
नील कंवल से नैना झिलमिल, बिन बतियाँ मुस्काने ।।
सुमधुर बिहँसन देख सभी, सम्मोहित हो हो जाएँ ।
खड़ी गुलाबो निरख रहीं, औ नैनों से बतियाएँ ।।

कानन कुंडल छबी अनोखी, मेहंदी हाथ रचाए ।
है मासूम कली सी खिलती, सबके मन बस जाए।।
चंचल मन की चंचल खुशियाँ, न जानें बेचारी ।
बाली उमर में काम करे वो, निर्धनता से हारी ।।

पढ़ने की है उमर, खेलने का उसका अधिकार ।
नहीं जानती है समाज वो, न जाने सरकार ।।
डलिया में भर फूल, सभी से करती है मनुहार।
उन पैसों से आज चलेगा, उसका घर परिवार ।।

कोई समझे विकट विवशता, उसके बालेपन की ।
नन्हीं सी ये स्वयं कली है, वाट लगी बचपन की ।।
बचपन में जब मिली न रोटी, शिक्षा क्या पाएगी ?
ये समाज की रीढ़ है, नीचे झुकती ही जाएगी ।।

ये पिछड़ी तो स्वयं पीढियाँ, घुटने पे रेगेंगी ।
बेटी अंबर खाक चढ़ेंगी, फुलवा ही बेचेंगी ।।
चलो सभी मिल जुलकर, ऐसे कदम बढ़ाएँ ।
फुलवा वाले हाथ, हवा में यान उड़ाएँ ।।

**जिज्ञासा सिंह**

30 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर !
    फुलवा के वर्तमान और उसके भविष्य को देख कर फ़िल्म 'सगीना' के एक गाने की दो पंक्तियाँ याद आ गईं -
    'भोले-भाले ललुआ खाए जा रोटी बासी,
    बड़ा हो के बनेगा, साहब का चपरासी ---'
    अब चाहे वो फुलवा हो या फिर ललुआ, उनका वर्तमान और उनका भविष्य तो मुझे अंधकारमय ही दिख रहा है.

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  2. बिल्कुल सही कहा आपने। इन मासूमों के लिए कोई ठोस नीति जब नहीं बनेगी तो सुधार कहां संभव है ?
    हर जगह बच्चे बाल मजदूरी करते दिखते हैं मन आहत होता है,पर इन बच्चों की भी मजबूरी है ।
    आपकी प्रशंसा भरे शब्द मेरी प्रेरणा बनते हैं और सुझाव मेरी लेखनी की ताकत ।
    त्वरित टिप्पणी के लिए आपको मेरा नमन और वंदन 👏👏

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  3. पढ़ने की है उमर, खेलने का उसका अधिकार ।
    नहीं जानती है समाज वो, न जाने सरकार ।।
    डलिया में भर फूल, सभी से करती है मनुहार।
    उन पैसों से आज चलेगा, उसका घर परिवार ।।
    ऐसे दृश्य देख कर मन विचलित हो उठता है!
    ये जो आपने अंत में कहा-
    ये पिछड़ी तो स्वयं पीढियाँ, घुटने पे रेगेंगी ।
    बेटी अंबर खाक चढ़ेंगी, फुलवा ही बेचेंगी ।।
    चलो सभी मिल जुलकर, ऐसे कदम बढ़ाएँ ।
    फुलवा वाले हाथ, हवा में यान उड़ाएँ ।।
    यह सवाल मन में बार बार उठता है और इनके लिए बहुत कुछ कर गुजरने की चाह प्रबल हो उठती है लेकिन अफ़सोस बहुत कम लोग साथ देते हैं ऐसे काम करने में!
    लेकिन एकदिन मैं अकेले ही इन सबको वो सब दिलाऊँगी जिनकी ये हकदार हैं बस एकबार खुद के पैरों पर खड़े हो जाए!आर्थिक रूप से मानसिक रूप से और समाजिक तौर पर आत्मनिर्भर हो जाए!
    अत्यंत मार्मिक व हृदयस्पर्शी रचना!

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    1. वाह मनीषा, रचना की सार्थक समीक्षा करती तुम्हारी लाजवाब प्रतिक्रिया ने इस रचना का मान बढ़ा दिया । अभिभूत हूं इतनी सारगर्भित प्रतिक्रिया के लिए ।
      तुम्हें मेरा स्नेह भरा अभिनंदन ।बहुत बहुत शुभकामनाएं और आभार ।

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    1. बहुत-बहुत आभार भारती जी । प्रशंसा के लिए आपका अभिनंदन करती हूं ।

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  5. वर्षों हो गए, तरह-तरह के लोग आए, विभिन्न दावे हुए पर असलियत, जस की तस ! पौधे को अंकुरित होते ही संभालना पड़ता है तभी वह ढंग से पनप पाता है ! वैसे भी जिस-जिस के लिए साल में कोई दिन निर्धारित किए गए हैं उनका हश्र सबके सामने है ही

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    1. जी बिल्कुल । आपकी प्रतिक्रिया से शत-प्रतिशत सहमत हूं ब्लॉग पर आपकी उपस्थिति को नमन करती हूं, मेरी सादर शुभकामनाएं ।

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  6. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (25-1-22) को " अजन्मा एक गीत"(चर्चा अंक 4321)पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

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    1. कामिनी जी नमस्कार👏
      चर्चामंच में चर्चा के लिए रचना का चयन करने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार प्रिय कामिनी जी । मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ।

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  7. बहुत सुंदर रचना बधाई हो आपको जिज्ञासा जी

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  8. बहुत बहुत आभार शकुंतला जी। आपकी उपस्थिति को मेरा नमन और ब वंदन ।

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  9. ये पिछड़ी तो स्वयं पीढियाँ, घुटने पे रेगेंगी ।
    बेटी अंबर खाक चढ़ेंगी, फुलवा ही बेचेंगी ।।
    चलो सभी मिल जुलकर, ऐसे कदम बढ़ाएँ ।
    फुलवा वाले हाथ, हवा में यान उड़ाएँ ।।
    मन को बहुत अच्छी लगी अन्तिम दो पंक्तियां । काश... ऐसा ही हो । हर फुलवा के हाथों में पुस्तक और कलम हो ।हृदयस्पर्शी सृजन जिज्ञासा जी ।

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    1. आपकी सारगर्भित टिप्पणियां हमेशा मेरा मनोबल बढ़ाती हैं आदरणीय मीना जी । आप को मेरा हार्दिक नमन और वंदन ।

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  10. बालिका दिवस पर अत्यंत सुंदर रचना!

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    1. आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय दीदी आप को मेरा सादर अभिवादन ।

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  11. हृदय भेदते तथ्य सटीक भी , क्या फुलवा बेचना क्या मजूरी
    या कोई भी कार्य बाल , किशोरों को करते देखते हैं मन व्याकुल हो जाता है पुस्तकों वाले हाथों में पुस्तक ही नहीं ,बचपन के दिनों में बचपन ही नहीं खेल खिलौने तो दूर ।
    इतनी संस्थाएं चारों तरफ दिखती हैं पर इनके हालातों में कोई सुधार नहीं।
    बहुत सटीक हृदय स्पर्शी रचना।
    अंतिम पंक्तियां साधुवाद के योग्य।
    सस्नेह।

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    1. बिल्कुल सच कहा आपने । आपकी बात से शत-प्रतिशत सहमत हूं । ब्लॉग पर आपकी प्रतिक्रिया हमेशा मेरा मनोबल बढ़ाती है आपको मेरा नमन और वंदन आदरणीय कुसुम जी ।

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  12. पढ़ने की है उमर, खेलने का उसका अधिकार ।
    नहीं जानती है समाज वो, न जाने सरकार ।।
    डलिया में भर फूल, सभी से करती है मनुहार।
    उन पैसों से आज चलेगा, उसका घर परिवार ।।
    बहुत सुंदर और सार्थक रचना जिज्ञासा जी।

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  13. आपकी सारगर्भित टिप्पणियां हमेशा मेरा मनोबल बढ़ाती हैं आदरणीय अनुराधा जी । आप को मेरा हार्दिक नमन और वंदन ।

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  14. बालिका दिवस पर ये मार्मिक रचना देश की उन असंख्य बेटियों के प्रति दायित्व का बोध कराती हैं जिन्हें घर चूल्हे के ईंधन के लिए अपने सपनों की आहुति देनी पड़ी। । अनगिन गुलाबो हैं जो अपनी मासूम मुस्कुराहट के साथ चौराहों, मंदिरों की चौखट, सड़कों और गलियों में फूल या अन्य सामान बेचतीं हैं। शिक्षा ही उनके जीवन को सफल बनाने की एकमात्र सीढ़ी है तभी गुलाबो और उस जैसी बेटियां बेटी पढ़ाओ बेटी बढ़ाओ का नारा सार्थक कर सकेंगी। भावपूर्ण और झझकोरती-सी रचना के लिए हार्दिक बधाई।

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    1. बहुत बहुत आभार इतनी सारगर्भित और सार्थक प्रतिक्रिया के लिए । ये प्रतिक्रिया तो मुझे और भी गहनता से सोचने को बाध्य कर देगी । आपकी यह प्रतिक्रियाऐं मेरे लिए अमूल्य निधि है आप को मेरा नमन और बंदन ।

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  15. ये पिछड़ी तो स्वयं पीढियाँ, घुटने पे रेगेंगी ।
    बेटी अंबर खाक चढ़ेंगी, फुलवा ही बेचेंगी ।।
    चलो सभी मिल जुलकर, ऐसे कदम बढ़ाएँ ।
    फुलवा वाले हाथ, हवा में यान उड़ाएँ ।।👌👌👌🙏🌷🌷💐💐

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  16. बहुत बहुत आभार आपका और बहुत बहुत अभिनंदन ।

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  17. हृदय क्षत-विक्षत हो जाता है इस विद्रूप सच से। पर विश्वास है दिन बहुरेंगे। उद्वेलित करती हुई कृति।

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  18. रचना को चरितार्थ करता चित्र और चित्र को अर्थ देती रचना! बहुत खूब जिज्ञासा जी!

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