भारी जगी जगाई आँखें
नींद लिए बौराई आँखें

काम ढूँढती दर दर भटकी
गुदड़ी की ये जाई आँखें 

रोटी मिली प्याज़ की खातिर
जगह जगह भटकाई आँखें

मोल तोल का भार लिए
झुकती और झुकाई आँखें

मचलीं जब जब नादानी में
बन अंगार दिखाई आँखें

आज तलक बस एक बार ही
खुद से गई उठाई आँखें

माँ की उँगली स्नेह का काजल
भरकर गई लगाई आँखें ।।

**जिज्ञासा सिंह**

20 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर आँखों के निमिष मात्र झूकने उठने में कितनी अभिव्यक्ति होती है ।
    अभिनव सृजन।

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    1. बहुत बहुत आभार कुसुम जी ।
      आपकी प्रतिक्रिया को नमन करती हूँ ।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (13-04-2022) को चर्चा मंच       "गुलमोहर का रूप सबको भा रहा"    (चर्चा अंक 4399)     पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'    --

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    1. आदरणीय शास्त्री जी, प्रणाम!
      रचना को चार ha मंच में शामिल करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार।
      मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ।

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  3. आँखों की गहराई और भिन्न कार्यकलापों को बखूबी दर्शाया है आपने इस सुंदर कृति में

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  4. आँखों का सजीव रेखा चित्र खींचने में पूर्ण सफलता की हम प्रशंसा करते हैँ.

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  5. आँखों के क्रियाकलापों के साथ भावपूर्ण सृजन ।

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  6. वाह जिज्ञासा ! गुदड़ी की ये जाई आँखें' का यह अभिनव-प्रयोग दिल को छू गया !

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  7. बहुत बहुत आभार आदरणीय सर।
    आपकी प्रशंसा को नमन और वंदन।

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  8. बालमन के जीवन संघर्षों को कितनी बारीक नजरों से पढ़ा है आपने
    कमाल
    बेहद भावपूर्ण और प्रभावी गज़ल
    बधाई

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  9. बहुत बहुत आभार ज्योति खरे जी ।
    आपकी प्रशंसनीय टिप्पणी का हार्दिक स्वागत ।

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  10. निशब्द हूँ... आपकी रचना पढ़ कर!

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