आओ मिलकर प्रीत जगाएँ

आओ मिलकर प्रीत जगाएँ

भला कहीं नारों से जीवन कटता है
भेदभाव का दृश्य स्वयं को छलता है
उनकी रस्सी अपनी गर्दन फाँस लगाकर
चौराहे पर खुद को यूँ न लटक दिखाएँ ॥

पछुआ पुरवइया ने मिलकर उमस बढ़ाई है 
हर दिल और दिमाग पे गर्मी छाई है
शीतल बौछारों से कर लें चलों निवेदन
थोड़ी ठंडे छींटों की फुहार बरसाएँ ॥

टोपी चंदन भेदभाव वो नहीं जानता
तुम इतने गुस्ताख वो नहीं मानता
हे मानव की जाति, जाति अब मत जानो
सब उसकी संतान सभी को ये समझाएँ ॥

छोड़ नहीं जाने वाला कोई ये दुनिया
खा लें मिलकर बाँट निवाला शन्नो, मुनिया
होली की गुझिया, बैसाखी की थाली में
एक कटोरी सिवईं रखकर उन्हें खिलाएँ ॥

आओ मिलकर प्रीत जगाएँ ॥

**जिज्ञासा सिंह**

17 टिप्‍पणियां:

  1. प्रेम-सौहार्द में पगे, बहुत सुन्दर विचार हैं तुम्हारे जिज्ञासा !
    लेकिन तुम्हारे ऐसे विचार तुम्हें कभी कोई चुनान नहीं जीतने देंगे.

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    1. मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया के लिए आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय सर।

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  2. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार 18 अप्रैल 2022 ) को 'पर्यावरण बचाइए, बचे रहेंगे आप' (चर्चा अंक 4404) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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    1. चर्चा मंच में रचना के चयन के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद आदरणीय सर।
      मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।

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  3. छोड़ नहीं जाने वाला कोई ये दुनिया
    खा लें मिलकर बाँट निवाला शन्नो, मुनिया
    होली की गुझिया, बैसाखी की थाली में
    एक कटोरी सिवईं रखकर उन्हें खिलाएँ ॥

    आओ मिलकर प्रीत जगाएँ ॥
    बहुत ही सुंदर सोच दर्शाती रचना, जिज्ञासा।

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  4. आपकी सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आपका बहुत बहुत आभार ज्योति जी ।

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  5. प्रेम और सौहार्द को बढ़ावा देने वाली सुंदर रचना, आज हर समाज को ऐसे ही विचारों से जागृत करने की आवश्यकता है

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  6. टोपी चंदन भेदभाव वो नहीं जानता
    तुम इतने गुस्ताख वो नहीं मानता
    हे मानव की जाति, जाति अब मत जानो
    सब उसकी संतान सभी को ये समझाएँ ॥
    वाह!!!!
    क्या बात कही है जिज्ञासा जी आपने... इन जातिवाद फैलाने वालों से जनता को सावधान करवाने हेतु ऐसे काव्य सृजन की आवश्यकता है ...ये राजनीतिक खेल में मानवता का बँटवारा करने वाले इंसान को इंसान का दुश्मन बना रहे हैं ।
    सौहार्दपूर्ण एवं लाजवाब सृजन हेतु बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं।

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  7. आपकी सारगर्भित प्रशंसा ने सृजन को सार्थक कर दिया ।
    बहुत बहुत आभार सखी ।

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  8. टोपी चंदन भेदभाव वो नहीं जानता
    तुम इतने गुस्ताख वो नहीं मानता
    हे मानव की जाति, जाति अब मत जानो
    सब उसकी संतान सभी को ये समझाएँ ॥

    बिल्कुल सही कहा आपने!
    बहुत ही उम्दा रचना! विविधता में एकता यही हमारी विशेषता के लिए प्रख्यात हमारे देश, हमारे देश के युवाओं बनाए रखने की जरूरत है किसी भी नेता या कट्टरपंथी के बातों में फसने की जरूरत है! वर्तमान में अनेकता कुछ ज्यादा ही बड़ती जा रही जिस कारण आए दिन दंगे फसाद होतें रहतें है हमारे देश के विकास में बाधा बन रहें हैं!

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    1. बिलकुल सटीक प्रतिक्रिया प्रिय मनीषा।
      बहुत आभार ।

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  9. टोपी चंदन भेदभाव वो नहीं जानता
    तुम इतने गुस्ताख वो नहीं मानता
    हे मानव की जाति, जाति अब मत जानो
    सब उसकी संतान सभी को ये समझाएँ ॥///
    बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति प्रिय जिज्ञासा जी।गंगा-ज़मनी तहज़ीब हमारी अनमोल विरासत है।

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  10. आपकी अनमोल टिप्पणी का हार्दिक स्वागत है प्रिय सखी ।

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