वे जीत लेते बाज़ी


वे पास में बिठाकर 
शतरंज खेलते हैं ।
एक दाँव खास उनका
चालों पे मेरे भारी,
वे जीत लेते बाज़ी
हम हार झेलते हैं ॥

है झूम झूम चलता, 
गज मस्त चाल अपनी ।
और अश्व दौड़ता है,
रह-रह फुला के नथुनी ।
स्तब्ध शान्त बैठी 
हर दाँव देखती हूँ,
नजरें मेरी बचाकर
वे शस्त्र भेदते हैं ।।

सौ अस्त्र शस्त्र मेरा, 
बस एक चाल उनकी ।
गज अश्व ऊँट पैदल,
सहमें हैं सुनके धमकी ।
हारे थके व अनमन
ले त्याग औ समर्पण,
मेरे अज़ीज़ प्यादे
घुटने ही टेकते हैं ॥

सिर पर मुकुट सजाए,
बाँधे विजय का सेहरा ।
मेरी सैन्य ताक़तों पे,
मुझपे लगा के पहरा ।
उनकी तनी हैं मूँछें
संसार की समूचे,
मेरी भी वसुधरा का 
हर द्वार घेरते हैं ॥

**जिज्ञासा सिंह**

15 टिप्‍पणियां:

  1. 'चित्त भी मेरी, पट्ट भी मेरी' के उसूलों वालों से भला कौन जीत सकता है? शतरंज की बिसात पर काले मोहरे उसके हैं और सफ़ेद मोहरों को वो अपनी जेब में रखता है.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सार्थक भाव तक पहुंचती आपकी त्वरित टिप्पणी का तहेदिल से स्वागत, नमन, वंदन और अभिनंदन करती हूं आदरणीय सर।
      आपकी प्रतिक्रिया नव सृजन का आधार बनती है, आपका हार्दिक आभार सर ।

      हटाएं
  2. जब अपनी हार में भी जीत लगने लगे तब उन्हें जीतकर भी आनंद नहीं आएगा

    जवाब देंहटाएं
  3. चलते चलिए आज हार है तो कल जीत भी होगी !!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपके शब्द बहुत प्रेरक हैं, बहुत बहुत आभार अनुपमा जी ।

      हटाएं
  4. ज़िंदगी के फ़लसफ़ा का सुंदर तराना!!!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. ऊर्जा देती आपकी प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार ।

      हटाएं
  5. दांव पेंच में ही उलझा रहता है जीवन। सुंदर रचना!

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत बहुत आभार रश्मि जी ।
    आपकी संबल देती प्रतिक्रिया का हार्दिक स्वागत है ।

    जवाब देंहटाएं