जीवन है एक खेल


मन मेरे अलबेले साथी सुनता जा ।
जीवन है ये,गुणागणित तू गुनता जा ॥

ठहरे पानी में जो कंवल खिला 
कीचड़ ही निकला ।
डाला अंजन दिया हुआ आँखों में 
कंकड़ ही निकला ॥
देख जरा पुतली को उलट पुलट के
बीन बीन कर किरचें
कंकड़ की रखता जा ॥

चुभता काँटा पावों में 
हो जैसे आँखों में कंकड़ ।
चलना दिखना दोनो दूभर
लुढ़का जाए बेबस ही धड़ ॥
कटे पेड़ के तने अलग हो रहे हों जैसे
उखड़ी जड़ है 
झड़ी कोपलें चुनता जा ॥

अनायास तू अब मत समझा 
बजी दुंदुभी टूटे मेखड़ बैंड बजा ।
सात सुरों के साज बीन में बजें सभी
ताल में ताल भिड़ा हाथों से आज सजा ॥
चले मदारी चाल नाचते पले पलाए
नाच उन्हीं की ताल
नई धुन बुनता जा ॥

रेखाओं का तंत्र बूझता जाने कब से
बचा नहीं है भोग लगाना अब कुछ ।
जो कुछ है संज्ञान रखो उर भीतर
मोल तोल का पलड़ा जाने सारा कुछ ॥
दाग धुला और चला गया फिर से आएगा
जीवन है एक खेल 
मदारी बनता जा ॥

**जिज्ञासा सिंह**

22 टिप्‍पणियां:

  1. जिज्ञासा, नेतारूपी मदारी देशवासियों को पहले ही अपने इशारों पर नचा रहे हैं अब और लोगों को मदारी बनने की सलाह मत दो.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मैंने मदारी बन के जीवन के खेल देखने की बात की है राजनीति की नहीं हां उसमे राजनीति भी हो सकती है । पर इसमें जीवन के विभिन्न आयामों की बात की है ।

      हटाएं
  2. आपकी लिखी रचना सोमवार 27 जून 2022 को
    पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    संगीता स्वरूप

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय दीदी।रचना का "पांच लिंकों का आनंद" पर चयन के लिए आपका विशेष धन्यवाद । मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।

      हटाएं
  3. आदरणीय ,
    आपकी लेखनी पर प्रतिक्रिया देने के काविल नहीं हूँ मैं -फिर भी --- आपकी रचना के सार को समझने के लिए शुरू एवं अंत कि पंक्तियां ही काफी है - - -

    मन मेरे अलबेले साथी सुनता जा ।
    जीवन है ये,गुणागणित तू गुनता जा ॥

    जीवन है एक खेल
    मदारी बनता जा ॥

    जवाब देंहटाएं
  4. इस जीवन का कौन मदारी सोच रही
    मैं नियति की कठपुतली ईश को कोंच रही
    मन का धागा मन के अनुसार चलता है क्या?
    प्रश्नों की डुगडुगी पीटकर समय नृत्य करवाता है
    मैं अवश थिरकती वानर हूँ या मदारी सोच रही।
    ----
    अत्यंत सुंदर ,लयात्मक और सारगर्भित अभिव्यक्ति जिज्ञासा जी।
    सस्नेह।

    जवाब देंहटाएं
  5. आपकी आशु पंक्तियों को कायल हूं प्रिय श्वेता जी । सार्थक प्रतिक्रिया मनोबल बढ़ा गई ।बहुत आभार सखी ।

    जवाब देंहटाएं
  6. ठहरे पानी में जो कंवल खिला
    कीचड़ ही निकला ।
    डाला अंजन दिया हुआ आँखों में
    कंकड़ ही निकला ॥
    देख जरा पुतली को उलट पुलट के
    बीन बीन कर किरचें
    कंकड़ की रखता जा ॥
    सचमुच बड़े अजब गजब हैं खेल जीवन के ...बस देखते जखना ही नियति है ...क
    या कर सकते हैं
    बहुत ही सुन्दर चिंतनपरक सृजन ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सारगर्भित टिप्पणी के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया प्रिय सुधा जी ।

      हटाएं
  7. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (29-06-2022) को चर्चा मंच     "सियासत में शरारत है"   (चर्चा अंक-4475)     पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'    

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आदरणीय शास्त्री जी, मेरी रचना को चर्चा मंच में चयन करने के लिए आपका हार्दिक आभार और अभिनंदन।
      शुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह

      हटाएं
  8. मन मेरे अलबेले साथी सुनता जा ।
    जीवन है ये,गुणागणित तू गुनता जा ॥

    सिर्फ ये दो पंक्तियां ही इन्सान मनन करले तो जीवन आनंदमय हो जायेगा, बहुत ही सुन्दर सृजन आदरणीया जिज्ञासा जी 🙏

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत आभार आपका प्रिय कामिनी जी ।

    जवाब देंहटाएं
  10. उत्तर
    1. ब्लॉग पर आपकी सार्थक प्रतिक्रिया का हार्दिक स्वागत है। स्नेह बनाए रखें।

      हटाएं
  11. गहन भावों का सृजन।
    जिंदगी को देखने और जीने का सलीका बतलाती सारगर्भित रचना।
    बहुत सुंदर।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. रचना के मर्म तक पहुंच सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आपको नमन और वंदन ।

      हटाएं
  12. वाह ! जीवन को देखने की एक नयी दृष्टि !

    जवाब देंहटाएं