खामोशी से कर्तव्यों
को करते देखा है ।
जलते अंगारों पे
चलकर बनती रेखा है ॥
जो रेखाएँ गर्म लहू से
अंगारों पे लिखी गईं ।
आँसू के छीटों संग
अम्बर छूते देखा है ॥
बूँद स्वेद की कतरा-कतरा
रिस-रिस भू तक पहुँच गईं ।
धरती से कर द्वन्द
कोपलें बनते देखा है ॥
रगड़-रगड़ घिस-घिस
पत्थर से निकले चिंगारी
धूल सनी काया से
धुआँ निकलते देखा है ॥
कहें ब्रह्म की ज्योति
वहीं पर जले सदा अविरत
तिमिर चीरकर स्वयं तिमिर
घृत बनते देखा है ॥
**जिज्ञासा सिंह**
वाह जिज्ञासा जी, बहुत ख़ूब! अद्वितीय रचना, निस्संदेह!
जवाब देंहटाएंबहुत आभार जितेंद्र जी ।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (06-07-2022) को चर्चा मंच "शुरू हुआ चौमास" (चर्चा अंक-4482) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत बहुत धन्यवाद आपका आदरणीय सर । आपकी टिप्पणी प्रकाशित नहीं हुई थी। मेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए आपका हार्दिक आभार और अभिनंदन।
हटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर आपकी उपस्थिति का हार्दिक स्वागत है आदरणीय सतीश शर्मा जी।
हटाएंवाह! भावपूर्ण
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका आदरणीय।
हटाएंबेहतरीन रचना जिज्ञासा जी।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार अनुराधा जी ।
जवाब देंहटाएंवाह .... सुन्दर और प्रेरक रचना .... कभी कभी अद्भुत चीज़ें भी दिखाई देती हैं .
जवाब देंहटाएंसारगर्भित टिप्पणी के लिए आपका हार्दिक नमन और वंदन आदरणीय दीदी।
हटाएंअनोखे रूपकों का चित्रण कर मानव की अदम्य भावना का सुंदर वर्णन!
जवाब देंहटाएंसारगर्भित टिप्पणी के लिए आपका हार्दिक नमन और वंदन आदरणीय दीदी।
हटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार कविता जी ।
हटाएंकहें ब्रह्म की ज्योति
जवाब देंहटाएंवहीं पर जले सदा अविरत
तिमिर चीरकर स्वयं तिमिर
घृत बनते देखा है ॥
वाह !! बहुत सुन्दर सृजन ।
बहुत बहुत आभार आपका मीना जी ।
जवाब देंहटाएंवाह! अद्भुत.... बहुत ही बेहतरीन प्रिय मैम!
जवाब देंहटाएंबहुत आभार प्रिय मनीषा।
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूबसूरत पंक्तियाँ !
जवाब देंहटाएंबहुत आभार संजय जी ।
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