आग में मुझको तपानी उँगलियाँ
तप के वे कुंदन बनेंगी ।
फिर वे जाने क्या लिखेंगी ?
वे कहीं लिख जाएँ न घर्षण मेरा
उस खुदा के सामने अर्पण मेरा ।
प्रेम की वो धार जो टूटी नहीं
आस औ विश्वास का तर्पण मेरा ॥
लरजती लिख जाएँगी श्वासों को मेरे
धड़कनों में बह रहा दर्शन लिखेंगी ।
वे कहीं लिख जाएँ न कोरा ये मन
कर न लें मेरी कथा का आँकलन ।
इस अकिंचन से हुआ व्यवहार जो
बिखर कर खिलता रहा फिर भी चमन ॥
गर्म रेगिस्तान की मरुभूमि पर अश्रु के
छीटों का वे गुलशन लिखेंगी ।
क्या पता लिख जायँ वे रातों को मेरे
कैसे बीतीं और कब आए सवेरे ?
सलवटें तो गिन नहीं वे पाई होंगी
दर्द कितने और बेचैनी बटोरे ॥
रात भर रिसते रहे जो धमनियों से
घाव के उस पीर का परचम लिखेंगी ।
अब रही न मूल्य की कोई कहानी
जो मुझे अब है उसे मुख से बतानी ।
स्वयं के अहसास से उपजे हुए
रूह की आँखों से निकला गर्म पानी ॥
उड़ रही जो इस जहाँ में हैं हवाएँ
फूल बनते धूल का कण कण लिखेंगी ।
**जिज्ञासा सिंह**
स्त्रियों के मन के उद्गार को शब्द दिए हैं .... बेहतरीन रचना ।
जवाब देंहटाएंकविता के मर्म पर सार्थक टिप्पणी के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय दीदी ।
हटाएंआपने अति-प्रशंसनीय कविता का सृजन किया है जिज्ञासा जी। जहाँ-जहाँ 'के' के स्थान पर 'की' आना चाहिए, वहाँ-वहाँ सुधार कर लेना उचित रहेगा। अपनी उंगलियों को तपा ही लीजिए ताकि आपका सृजन आने वाले समय में सचमुच कुंदन की ही भांति दमके।
जवाब देंहटाएंमनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया के लिए बहुत आभार जितेन्द्र जी ।समझ नही आया कि "की" कहां लिखना है ?
हटाएंव्याकरणीय दृष्टि से 'घाव की उस पीर' तथा 'रूह की आँखों' होना चाहिए। इसके अतिरिक्त अंतिम पंक्ति में शुद्ध अभिव्यक्ति 'फूल बनती धूल' होगी न कि 'फूल बनते धूल'। कारण यह है कि 'पीर', 'रूह', एवं 'धूल' स्त्रीलिंग शब्द हैं। और 'लरजती लिख जाएँगी श्वासों को मेरी धड़कनों में बह रहा' होना चाहिए न कि 'श्वासों को मेरे धड़कनों में' क्योंकि श्वास एवं 'धड़कन' दोनों ही स्त्रीलिंग शब्द हैं। आशा है, आप मेरी बात को अन्यथा नहीं लेंगी। आप श्रेष्ठ कवयित्री हैं एवं यह कविता भी उत्तम गुणवत्ता की है, अतः मुझे आपकी रचना में व्याकरणीय अशुद्धियां उचित नहीं लगीं। तथापि आपको मेरा इंगित करना अनुचित प्रतीत हुआ हो तो मैं क्षमा चाहता हूँ।
हटाएंआपकी लिखी रचना सोमवार 25 जुलाई 2022 को
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
"पांच लिकों का आनंद पर" मेरी रचना कल पढ़ी जाएगी । मुझे ये आनंद देने के लिए आपका हार्दिक शुक्रिया दीदी । मेरी हार्दिक शुभकामनाएं 🌷🌹👏
जवाब देंहटाएंवाह! कोमल भावनाओं को यथार्थ की तपन में तपाकर किया गया सुंदर सृजन!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार दीदी ।
हटाएंवाह! बहुत बहुत बहुत ही बेहतरीन रचना! 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार प्रिय मनीषा।
हटाएंबहुत सुंदर और बेहतरीन सृजन। आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार वीरेन्द्र जी ।
हटाएंतपकर निखरेगीं
जवाब देंहटाएंकिरणों-सा बिखरेगीं
सूर्य भी लजा जायेगा
तेजस्विनी जब दमकेगीं
-----
अत्यंत सुंदर अभिव्यक्ति जिज्ञासा जी।
सस्नेह।
भावभरी पंक्तियां। आपका बहुत शुक्रिया श्वेता जी । ।
हटाएंवे कहीं लिख जाएँ न घर्षण मेरा
जवाब देंहटाएंउस खुदा के सामने अर्पण मेरा ।
प्रेम की वो धार जो टूटी नहीं
आस औ विश्वास का तर्पण मेरा ॥
लरजती लिख जाएँगी श्वासों को मेरे
धड़कनों में बह रहा दर्शन लिखेंगी ।
वाह!!!
बहुत ही सुन्दर लाजवाब सृजन
लेखनी सिर्फ आपबीती ही न लिखती रह जाय
बहुत ही भावपूर्ण
आपका बहुत शुक्रिया सुधा जी ।
हटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार उषा जी।
हटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार।
जवाब देंहटाएंजिज्ञासा जी उंगलियां तपाने की जरूरत नहीं आपको। आपका लेखन ही उसका प्रमाण है। भाव पूर्ण प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर आपकी उपस्थिति आह्लादित कर है ।बहुत आभार आपका ।
जवाब देंहटाएंउड़ रही जो इस जहाँ में हैं हवाएँ
जवाब देंहटाएंफूल बनते धूल का कण कण लिखेंगी ।
आपकी अंगुलियाँ बहुत सुन्दर और सार्थक संदेश लिखती हैं । बहुत सुन्दर हृदयस्पर्शी सृजन जिज्ञासा जी ।
बहुत बहुत आभार मीना जी ।
जवाब देंहटाएंआस औ विश्वास का तर्पण मेरा ॥
जवाब देंहटाएंलरजती लिख जाएँगी श्वासों को मेरे
धड़कनों में बह रहा दर्शन लिखेंगी ।
बहुत ही सुन्दर सृजन
बहुत बहुत आभार आपका।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर! अंतर तक गहरा उतरता सृजन।
जवाब देंहटाएंआपकी टिप्पणी से रचना सृजन सार्थक हुआ ।
जवाब देंहटाएं