फूलदान में सजते गाँव


हुआ मेड़ पर फिर झगड़ा ।
दौड़ पड़े दाऊ संग कक्का
ले कुदाल, बेलचा, फवड़ा ॥
हुआ मेड़ पर फिर झगड़ा ॥

नाली, नर्मद, घूर, कंडौर
बीते भर भी अपनी ठौर ।
कैसे सौंपें पुश्तैनी सब
लाय खतौनी देखो गौर ॥
बाबा-दादा सात पुश्त का
छोड़ गए सब लफड़ा ॥

दिया-दिया भर चले उधारी
चाहें उनकी भरी बखारी ।
बदल गया सब गजब जमाना
न बदली मन की लाचारी ॥
हुई तरक्की दिन दूनी 
छूटा न घर का रगड़ा ॥

एक तलैया चर-चर नाव
कब्जा किया जमाया पाँव ।
जलकुंभी के फूल सजे हैं
फूलदान में  सजते गाँव ॥
बगुला-बतखें दूर उड़ गए
झटका देकर तगड़ा ॥

**जिज्ञासा सिंह**

11 टिप्‍पणियां:

  1. वाह जिज्ञासा, श्री लाल शुक्ल ने अपने उपन्यास 'राग दरबारी' में भोले, निश्छल और रूमानी ग्रामवासियों का जो तिलिस्म तोड़ा है, उसी कटु यथार्थ को तुमने आगे बढ़ाया है.

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    1. आपकी इस बहुमूल्य टिप्पणी ने रचना को सार्थक कर दिया ।बहुत आभार आदरणीय।

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  2. आपकी लिखी रचना सोमवार 12 दिसंबर 2022 को
    पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    संगीता स्वरूप

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  3. "पांच लिंकों का आनंद में" रचना के चयंबके लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय दीदी । आपको नमन और वंदन।

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  4. दिया-दिया भर चले उधारी
    चाहें उनकी भरी बखारी ।
    बदल गया सब गजब जमाना
    न बदली मन की लाचारी ॥
    हुई तरक्की दिन दूनी
    छूटा न घर का रगड़ा ॥
    वाह!!!
    एकदम सटीक...
    अब घर के लफड़े झगड़े वहीं छोड़ शहर पलायन और फिर शहर में भी फूलदान में गाँव
    कमाल का सृजन ।

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  5. एक तलैया चर-चर नाव
    कब्जा किया जमाया पाँव ।
    जलकुंभी के फूल सजे हैं
    फूलदान में सजते गाँव ॥
    बगुला-बतखें दूर उड़ गए
    झटका देकर तगड़ा ॥ …वाह बहुत खूब

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  6. बहुत सुंदर जिज्ञासा जी।
    सटीक सार्थक वर्णन किया है आपने गाँव, पुस्तैनी उत्तराधिकारी और गांव से पलायन करते लोगों की बदलती मनोवृत्ति का।
    बहुत सुंदर सृजन।

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  7. गांव से पलायन करते लोगों की मनोवृत्ति का बहुत ही यतार्थ चित्रण किया है आपने, जिज्ञासा दी।

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  8. मैम आपने बहुत ही सटीकता से गाँव से पलायन कर रहें लोगों की मनोवृत्ति को शब्दों के माध्यम से बयां किया है! बेहतरीन रचना!
    आपकी इस रचना पर कुछ कहना है कि गाँव से पैसे के लिए लोग पलायन भले ही कर लेते हैं और पैसे भी मिल जातें हैं पर वो सुकून नहीं मिल पाता जो गाँव में ना वो अपनापन!
    मैंने कुछ ही दिनों में शहर और गांव के बीच के अंतर को कुछ इस तरह से महसूस किया है!
    इस तेज़ रफ़्तार से भागते हुए शहरों की फिज़ाओं में ना महक हैं,
    ना मट्टी में वो सोंधी खुशबू,
    ना सूर्य की किरणों में वो चमक है!
    ना ही चाँद की चाँदनी में वो सफेदी!
    जिसे मैं महसूस कर सकूँ!
    ना ढलती कोई ऐसी शाम है,
    ना ढलती शाम में पेड़ों की झुरमुट में छुपता हुआ लाल आग का गोला!
    ना जलती सुबह में चिड़ियों की चहचहाट.... .!
    मै शहर को बेकार तो बिल्कुल भी नहीं कह रहीं हूँ पर कुछ चीजें ऐसी है जो सिर्फ गांवों में ही मिलती है और ऐसे ही कुछ चीजें हैं जो सिर्फ शहर में होती है इसलिए पलायन करना मजबूरी हो जाता है कभी कभी!

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