मन की गुफा



गुफाओं के समंदर में
डूबकर आज अन्दर मैं 

धरा पर शीश ज्यों रक्खा 
नींद का आ गया झोंका 

बजे घड़ियाल घण्टे यूँ 
मैं उनसे जा तनिक मिल लूँ 

यही सोचूँ औ अलसाऊँ 
मैं कुछ भी न समझ पाऊँ 

तभी आंखें झपकती हैं 
कई परियाँ सी दिखती हैं 

गेरुवे वसन में लिपटी 
गगन की ओर हैं चलतीं 

न उनका ओर दिखता है 
न उनका छोर दिखता है 

वो पकड़े हाथ में वीणा 
लगे जैसे कई मीरा 

धरा से जा रही हैं नभ 
कौन रोके इन्हें बढ़, अब 

वो गाती हैं मधुर धुन में 
मैं डूबी उनकी गुंजन में 

नहीं कुछ दिख रहा मुझको 
मैं संग में चल पड़ी अब तो 

हैं राहें मखमली रेशम 
चले हैं झूमते अब हम 

मेरे हाथों में भी वीणा 
मुझे देती हुई मीरा 

है कहती कृष्ण की हो जा 
न कोई मार्ग है दूजा 

तू अब तक क्यों नहीं समझी 
रही जंजाल में उलझी 

ये माया मोह का जीवन 
बसंतों से भरा यौवन 

तुझे न रास आयेगा 
तुम्हें एक दिन रुलाएगा 

चली चल, मेरे पीछे तू 
देख न, पीछे मुड़ के तू 

और मैं चल पड़ी आगे 
लगा हैं भाग्य अब जागे 

निरंतर बढ़ती जाती मैं 
ये जीवन प्रभु की थाती है 

यही मैं सोचती जाऊँ 
हरी गुन झूम के गाऊँ 

मुदित मन,  आत्मा, अरु,  उर 
नयन मेरे झरें झर झर

**जिज्ञासा सिंह**

24 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ! बहुत सुंदर जिज्ञासा जी । छोटे-छोटे छंदों में मनमोहिनी भावनाओं की अद्वितीय अभिव्यक्ति । इसकी समुचित प्रशंसा के लिए शब्द ही नहीं हैं मेरे पास ।

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    1. आपके स्नेहपूर्ण प्रशंसा से अभिभूत हूँ और हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ.सादर नमन..

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (06-01-2021) को "अभी बहुत कुछ सिखायेगी तुझे जिंदगी"     (चर्चा अंक-3938)   पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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    1. आदरणीय शास्त्री जी, नमस्कार ! मेरी रचना को चर्चा अंक में शामिल करने के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया..सादर..

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  3. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 05 जनवरी 2021 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. आदरणीय यशोदा दी, नमस्कार ! मेरी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" शामिल करने का हृदय से स्वागत करती हूँ..आपका बहुत बहुत आभार..सादर नमन..

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  4. रेशम-सी कोमल और गुनगुनी धूप-सी गर्माहट वाली फंतासी कल्पना का जाल बुनती मोहक आध्यात्मिक रचना।

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    1. सुन्दर सरस और प्रेरणा भरी प्रशंसा का हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ..आपको मेरा अभिवादन..

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  5. बहुत सुन्दर सरस रचना | बहुत सराहना करने वाली |शुभ कामनाएं |

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    1. आलोक सिन्हा जी, आपकी प्रशंसा भरी टिप्पणी का बहुत बहुत आभार है..सादर नमन..

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    1. जोशी जी, आपकी प्रशंसा का हृदय से स्वागत करती हूँ..सादर नमन..

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  7. वाह!!!
    बहुत ही सुन्दर मनभावन सृजन।

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    1. सुधा जी, आपकी प्रशंसा भरी टिप्पणी का हृदय से स्वागत करती हूँ सादर नमन..

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    1. आदरणीय उर्मिला दीदी, आपकी स्नेहपूर्ण प्रशंसा को नमन है..

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  9. प्रिय जिज्ञासा जी, जब इंसान जीवन के कड़वे सत्य को हर तरह से परख लेता है तो कहीं ना कहीं किसी अंतः प्रेरणा के चलते वह अध्यात्म की ओर अग्रसर होने लगता है। बहुत ही सुंदर ढंग से एक जीवंत शब्द चित्र रचा है आपने जो जागी आँखों का सपना होते हुए भी सच लगता है। सुंदर रचना के लिए शुभकामनाएं और बधाई🙏 🌹❤

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    1. आपकी व्याख्यात्मक प्रशंसा से अभिभूत हूँ शुभकामना सहित जिज्ञासा सिंह..

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  10. बहुत गहराई है आपकी इस कविता में...

    साधुवाद प्रिय जिज्ञासा जी 🙏🌹🙏

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  11. प्रिय वर्षा जी, आप का बहुत बहुत आभार..शुभकामना सहित जिज्ञासा सिंह..

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  12. बहुत बहुत धन्यवाद ओंकार जी..सादर नमन..

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