नियति का क्रूर दंश ( हृदयाघात )



मुझपे बिजली गिरा गई नियति 

दे गई घाव और जला गई नियति 

 

चले भी कितना थे हम साथ उनके 

कदमों को हाशिए पे रुका गई नियति

 

अभी कल ही तो ख़ुशगवार मौसम था 

आई आँधी और सब कुछ उड़ा गई नियति

 

जो चमन उनके संग गुलाबों का लगाया था मैंने 

उन्हीं के काँटों में उलझा गई नियति 


ये सोचता कौन है कि कल क्या होगा 

 इन्हीं प्रश्नों में किस तरह उलझा गई नियति 


वो दो शब्द कह तो जाते मुझसे आख़िर में 

उन्हें सुनने को तरसा गई नियति 


ये उजाले ये रोशनी चुभ रही है मुझको 

घुप अंधेरों से दोस्ती करा गई नियति 


अब कहें तो किससे और क्या बोलें 

सब आंसुओं से बात करा गई नियति 


लोग कहते हैं कि भूल जाओ सब कुछ अब 

करूँ, क्या और कैसे ? भूलना ही भुला गई नियति 


समझ तो जाऊँगी उनकी बेबसी को एक दिन 

ज़िंदगी को फ़साना बना गई नियति

 

वो इस तरह बेरुख़ी कर नहीं सकते 

दिले नादान से धोखा दिला गई नियति 


**जिज्ञासा सिंह**

चित्र साभार गूगल 

16 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर और हृदयस्पर्शी सृजन। सादर बधाई।

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    1. प्रशंसनीय प्रतिक्रिया के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया वीरेन्द्र जी..सादर नमन..

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  2. नियति पे कब किसका बस रहा है ... जो है उसे भोगना भी एक नियति है ... बहुत भावपूर्ण रचना ...

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    1. आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया का आदर करती हूँ..सादर नमन..

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  3. आपका हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ, आदरणीय शास्त्री जी ..सादर अभिवादन..

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  4. ओह, अत्यंत मार्मिक रचना ....🌹🙏🌹

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  5. ये सोचता कौन है कि कल क्या होगा

    इन्हीं प्रश्नों में किस तरह उलझा गई नियति

    बहुत खूब,यही उलझन तो आज की जिंदगी बन गई है,सादर नमन जिज्ञासा जी

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  6. बहुत बहुत धन्यवाद प्रिय कामिनी जी, आपकी प्रशंसनीय प्रतिक्रिया को नमन hai..सादर..

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  7. बहुत बहुत आभार आपका संजय जी..मेरे ब्लॉग पर आपका हृदय से अभिनंदन करती हूँ..सादर नमन..

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