घर, द्वार, कुआँ, निमिया, गइयाँ
बाबा-बापू सब रे निहारि ।
जब गागर थामे चली नारि ।।
है क्या पहने कुलबधू आज
चुड़ियाँ, चप्पल घिस गई हैं क्या
लल्ला की अम्मा कहाँ गईं
मनिहार बुलाएँ या दें ला
ऐसे कुल के ध्वजवाहक को
स्त्री लेती नैनन उतारि ।।
भोजन की थाल देखते ही
मस्तक पहुँची तनकर भृकुटी
वो एक निवाला अटक गया
जब नहीं मिली चुपड़ी रोटी
क्या खाएगी ? पर घर बेटी
हम खा न पाए कौर चारि ।।
खाना कपड़ा हर रहन सहन
इस घर से उस तक ध्यान रहे
बिन देखे बिन बतियाए ही
हर भाव का ही सम्मान रहे
जब घर, स्त्री का मान करे
लेती स्त्री कुल स्वयं धारि ।।
जब गागर थामे चली नारि ।।
**जिज्ञासा सिंह**
अपने अधिकारों के लिए तो कुलवधू को ख़ुद ही लड़ना होगा.
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार आदरणीय सर ।
हटाएंकलवधुओं ने अब लड़ना शुरू कर दिया है, परिवार संस्था के टूटने का एक कारण स्त्री को परिवार में उचित सम्मान न मिलना भी है, जिसके लिए भी महिलाएँ अब मुखर हो रही हैं, और उसके सार्थक परिणाम भी आ रहे हैं ।
आपकी सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आपको नमन और वंदन ।
गौरव-बोध से अनुप्राणित अति सुन्दर बिंब एवं सृजन। अस्फुट गेयता युक्त।
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रतिक्रिया के लिए आपका बहुत बहुत आभार ।
हटाएंबहुत ही मानीखेज़ कविता।बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार आपका।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (११ -०३ -२०२२ ) को
'गाँव की माटी चन्दन-चन्दन'(चर्चा अंक-४३६६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
प्रिय अनीता जी आपका बहुत बहुत आभार एवम अभिनंदन। मेरी हार्दिक शुभकामनाएं 💐💐
जवाब देंहटाएंगाँवों की सामाजिक व्यवस्था को दर्शाती भावात्मक रचना ।अति सुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार मीना जी ।
हटाएंस्त्री से दोयम व्यवहार पर सटीक रचना।
जवाब देंहटाएंअब जागृति आ रही है और ऐसे दृश्य कम दिखते हैं।
अधिकारों के लिए लड़ती है नारी ।
सुंदर भावाभिव्यक्ति।
बहुत बहुत आभार कुसुम जी ।
हटाएंमहिला अधिकारों के प्रति जागरूक करती सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय दीदी। सादर अभिवादन।
हटाएंयही तो विडंबना है स्त्री जीवन की ... आज भी ऐसे दृश्य आसानी से देखने मिल जाते है जहाँ.बहू को परिवार का सदस्य नहीं व्यक्तिगत
जवाब देंहटाएंसेविका की तरह व्यवहार किया जाता है।
सत्य को उकेरती काव्य कथा बहुत अच्छी लगी जिज्ञासा जी।
सस्नेह।
आपकी प्रशंसा ने रचना को सार्थक कर दिया। आपका आभार सखी
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ बदल गया पर गाँव में आज भी महिलाओं को बहुत ही संघर्ष करने पड़ते हैं अपने स्वाभिमान को पाने के लिए! अधिकतर गाँव के पुरुषों की घर की औरतों के लिए ये सोच होती है कि औरत का एक मतलब घर में काम करने वाली एक महिला जिससे बाहर के किसी भी मामले में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं और न ही अपने विचार को व्यक्त करने का बस चुपचाप घर के काम करते रहना और कितना भी दर्द मिले पर चुपचाप सहते रहना!
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